विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
आज छत्तीसगढ़ में पोला पर्व मनाया जा रहा है. पोला पर्व प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है. पूरे देश में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते हुए सब तरफ त्यौहारों की चमक अब फीकी रहने वाली है. फिर भी हर हाल में अपने आप को खुश रखने के गुणों के कारण भारतीय किसान अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्कृति के अनुसार अपने दुख को बिसराने का प्रयत्न कर रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्तु सौ प्रतिशत उत्पादन का स्वप्न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्साह बरकरार है. छत्तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्य में अच्छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना, वो भी लिये रकम या अन्न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्यत्र व्याही होती है उन्हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज लिये जाते हैं, ठेठरी - खुरमी बनाने के लिए कर्ज लिये जाते हैं और 'तीजा के बिहान भाय सरी-सरी लुगरा' बहन-बेटियों को साड़ी भेंट की जाती है वो भी उसके मनपसंद, तो इसके लिये भी कर्ज. फिर भी मगन किसान. मैं भी जड़ों से किसान हूं इस कारण उनकी पीड़ा मुझे सालती है किन्तु इसके बावजूद उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम व त्यौहारों के बहाने खुशी जाहिर करना वर्तमान यंत्रवत जीवन में बिसरते और बिखरते आपसी संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है.
आप सभी को पोला पर्व की हार्दिक शुभकामनांए ..............
छत्तीसगढ़ी तिहार : तीजा - पोरा पढ़ें संजीत त्रिपाठी जी के ब्लाग 'आवारा बंजारा' में .
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्तु सौ प्रतिशत उत्पादन का स्वप्न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्साह बरकरार है. छत्तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्य में अच्छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना, वो भी लिये रकम या अन्न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्यत्र व्याही होती है उन्हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज लिये जाते हैं, ठेठरी - खुरमी बनाने के लिए कर्ज लिये जाते हैं और 'तीजा के बिहान भाय सरी-सरी लुगरा' बहन-बेटियों को साड़ी भेंट की जाती है वो भी उसके मनपसंद, तो इसके लिये भी कर्ज. फिर भी मगन किसान. मैं भी जड़ों से किसान हूं इस कारण उनकी पीड़ा मुझे सालती है किन्तु इसके बावजूद उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम व त्यौहारों के बहाने खुशी जाहिर करना वर्तमान यंत्रवत जीवन में बिसरते और बिखरते आपसी संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है.
आप सभी को पोला पर्व की हार्दिक शुभकामनांए ..............
छत्तीसगढ़ी तिहार : तीजा - पोरा पढ़ें संजीत त्रिपाठी जी के ब्लाग 'आवारा बंजारा' में .
संजीव तिवारी
हां बचपन मे खिलौना बैल दौडाते थे और छुट्टी होने के कारण भी इस त्योहार का पता सब को होता था।हमारे गांव मे बैलों का पट यानी दौड होती थी जो अब भी होती है मगर उसमे जोश कम और औपचारिकता ज्यादा होती है। और यंहा तो जोगी जी ने पोला की छुट्टी तक़ बंद करवा दी,वैसे भी जब जेब मे हो नगदुल्ल्लाह तभी नाचता है अब्दुल्ला।
जवाब देंहटाएंआज के दिन किसान अपने बैलों को सजा कर संध्या के बाद मशाल के साथ जुलूस निकालते थे, सो अब कहाँ देखने को मिलता है।
जवाब देंहटाएंChintaneey.
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
इस त्योहार की जानकारी हमें नहीं। भारतीय किसान की यह विडम्बना रही है कि उसे खुशी कर्ज में मिलती है। अब तो संपूर्ण मध्य वर्ग की यही स्थिति है।
जवाब देंहटाएंमैने महाराष्ट्र के पोला पर्व पर कुछ जानकारी अपने ब्लॉग पास पड़ोस sharadakokas.blogspot.com पर दी है और बचपन के उस लकड़ी के बैल का चित्र भी जो मुझे राजनान्दगाँव मे मुझे मेरे दादाजी ने दिया था
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी। यहां कल भादौं की तीज हेतु बहुत तैयारी चल रही है। शिवकोटि मन्दिर पर तो फूल-बिल्वपत्र निकाल दोने में सजा रही थी पुजारिनें!
जवाब देंहटाएंसर मुझे आपकी ये साइट बहुत पंसद आई क्योकि इसमें हमें अपने छत्तीसगढ़ी संस्कृती सभ्यता को जानने और समझने में बहुत सहायता मिलेगी।
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