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जुलाई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

दुर्ग का प्राचीन नाम द्रुग ही था

स्‍टील टि्वन सिटी के नाम से ज्ञात मेरे नगर के मुख्‍य डाकघर के पास लगे एक पत्‍थर पे मेरी नजर पिछले कई बरसों से ठहर जाती रही है. यह पत्‍थर संभवत: तत्‍कालीन ब्रिटिश शासन के द्वारा मील के पत्‍थर के रूप में जीई रोड के किनारे लगाई गई थी. इस पर नागपुर और रायपुर की दूरी लिखी गई है. इस पत्‍थर में दुर्ग का नाम द्रुग लिखा हुआ है. DURG की जगह DRUG . इस प्रश्‍न का जवाब हमने कई लोगों से पूछा संतोषप्रद उत्‍तर नहीं मिल पाया. थोडा और खोजबीन की तो पाया कि छत्‍तीसगढ के दुर्ग नगर को 'दुर्ग' कहने की परम्‍परा ज्‍यादा पुरानी नहीं है. दुर्ग नगर का क्षेत्र जब भंडारा से संलग्‍न था तदुपरांत 1857 में यह रायपुर जिले का तलसील बना तब तक इस नगर को द्रुग कहा जाता था. दुर्ग नगर की स्‍थापना लगभग दसवीं शताब्दि में मिर्जापुर के बाघल देश से आये जगपाल नामक व्‍यक्ति नें की थी. तब जगपाल रतनपुर के राजा का खजांची का काम सेवानिष्‍ठा से निबटा रहा था जिसके एवज में रतनपुर के राजा नें दुर्ग सहित 700 गांव उसे इनाम में दिये थे. सन् 1890 के लगभग यूरोपीय यात्री लेकी के दुर्ग आगमन का उल्‍लेख मिलता है. अपनी डायरी में लेकी नें

तो ..... भिलाई की जगह टाटानगर बसा होता.

दुर्ग जिले में लौह अयस्‍क भंडार होने के संबंध में सर्वप्रथम 1887 में भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण जिल्‍द बीस के अभिलेखों में पी.एन.बोस के द्वारा एक शोध पत्र के द्वारा बतलाया गया. इसके बाद से ही तत्‍कालीन मे.टाटा संस एण्‍ड कम्‍पनी की ओर से दुर्ग जिले में दिलचस्‍पी बढ गई थी. टाटा के द्वारा दुर्ग (तब रायपुर जिले का एक तहसील) के तत्‍कालीन डौंडी लोहारा जमीदारी के विशाल क्षेत्र में सर्वेक्षण अनुज्ञप्ति प्राप्‍त किया गया था एवं टाटा के द्वारा विपुल लौह भंडारों की जांच की गई थी. टाटा के द्वारा लायसेंस प्राप्‍त करने के बाद सर्वप्रथम सन 1905 में राजहरा पहाडी में सर्वेक्षण प्रारंभ किया था. टाटा के द्वारा लगभग दो वर्ष इन क्षेत्रों में सर्वेक्षण किया गया एवं अचानक काम समेट लिया गया, और तत्‍कालीन बिहार में टाटानगर अस्तित्‍व में आया. टाटा के द्वारा काम समेटने को लेकर भारतीय उद्योग जगत में तब काफी चर्चा हुई थी पर टाटा नें अपनी चुप्‍पी नहीं तोडी थी. सोवियत रूस के साथ हुए समझौते के तहत् सेल नें यहां भिलाई स्‍पात संयंत्र की स्‍थापना की और भिलाई अस्तित्‍व में आ गया. 1906 में टाटा नें यहां से कैम्‍प नह

आखिर क्‍या खास है देवी के आलूगुण्‍डे में .....

आफिस से निकलते ही एक मित्र का फोन आया, लगभग चार साल बाद उसने मुझे याद किया था. उसने पूछा कहां हो मैंनें कहा 'अपनी नगरी में, घर जाने के लिये निकल गया हूं. बोल बहुत दिनों बाद याद किया, तू कहां है. ' 'किस रोड से जा रहे हो.' मित्र नें मेरे प्रश्‍न का जवाब दिये बिना पूछा. मैनें कहा 'क्‍यूं बताउं भई, कोई रिवाल्‍वर लेके खडा है क्‍या, मुझे उडाने..........' बातें लम्‍बी चली. मित्र नें कहा 'नेहरू नगर चौंक आवो मै भिलाई आया हूं.' चौंक में पहुचकर मित्र को पहले ढूंढा, उसके आदत के अनुसार वहां कतार से लगे खाने-पीने की चीजों की गुमटियों में मैनें नजर दौडाई. 'सेक्‍टर 7 का मशहूर देवी आलूगुण्‍डा' के बोर्ड को देखकर समझ गया कि दोस्‍त जरूर यहां होगा. कल्‍याण कालेज के दिनों में हम सेक्‍टर सेवन के देवी आलूगुण्‍डा के लिये देर तक खडे रहते और छीना झपटी के बाद एकाध आलूगुण्‍डा खाकर ही घर जाते थे. पर दोस्‍त वहां नहीं था. अब हमने मोबाईल लगाया. दोस्‍त नें कहा 'तुम्‍हारे सामने जो होटल दिख रही है 'ग्रॉंड ढिल्‍लन' उसके पांचवे माले में आवो, लिफ्ट के बाजू में मैं तुम

अपार छपास पीडा से छटपटाते साहित्‍यकार

साहित्‍यकार महोदयजनों आपने पिछले दिनों कहा था कि 'छपास पीडा का इलाज मात्र है ब्‍लाग'. ब्लागर्स और उनकी पीडा से व्यथित ‘साहित्यकार’ महानुभावो आपने अपनी अहम की तुष्टि के लिये यह मान लिया है कि ब्लागर्स ही छपास पीडा से ग्रसित हैं, आप लोग बैरागी है. क्या ‘साहित्याकार’ की पदवी से विभूषित व्यक्ति मनुष्य नहीं होते, उन्हें प्रसंशा व प्रतिष्ठा की दरकार नहीं है, क्या वे नहीं चाहते कि उनकी लिखी हुई रचनाओं को अधिकाधिक संख्या में लोग पढें. क्‍या आपकी रचनायें पत्र-पत्रिकाओं के संपादक आपके घर आकर ले जाते हैं, आप भी उन्‍हें प्रकाशन के लिये भेजते हैं, यह नहीं है छपास पीडा, आप वीतरागी हैं. आपको यह छपास पीडा यहां तक सालती है कि अपने मेहनत की कमाई से भी अपने संग्रह को पुस्तकाकार रूप में स्वयं छपवाकर मुफ्त में अपने इष्टा-मित्रों को बांटते हैं. कई बार पूरे जीवन भर साहित्यकार बने रहने के स्वप्न को साकार करने के लिये, रिटायरमेंट के बाद बच्‍चों से अरजी समझौता कर साहित्यकार अपने प्राविडेंट फंड के मिले पैसों से पुस्तक छपवाता है, धूम धाम से उसका विमोचन करवाता है. क्या‍ यह छपास पीडा नहीं है. भाई साहब, यह

हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति.

26 जुलाई को दुर्ग जिला हिन्‍दी साहित्‍य समिति द्वारा तुलसी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित किया गया. छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी के प्राध्‍यापक के रूप में अपनी दीर्धकालीन सेवायें दे चुके एवं प्रदेश के अधिकांश साहित्‍यकारों, शव्‍दशिल्पियों एवं विचारकों के प्रिय गुरू रहे वर्तमान में छतरपुर में निवासरत साहित्‍यकार डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी इस कार्यक्रम के मुख्‍य वक्‍ता के रूप में आमंत्रित थे. कार्यक्रम के अध्‍यक्ष प्रसिद्व भाषाविद एवं पं.रविवि के भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. चित्‍तरंजन कर जी थे. डॉ.गंगापंसाद 'बरसैया' जी नें रामचरित मानस एवं तुलसी पर सारगर्भित वक्‍तव्‍य दिया. इस अवसर पर उनके कई वयोवृद्व छात्र भी उपस्थित थे जिन्‍होंनें कहा कि उन्‍हें आज ऐसा महसूस हुआ कि बरसों बाद महाविघालय के क्‍लास में सर नें लेक्‍चर दिया. डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी नें तुलसी की रचना, देश-काल और परिस्थिति, पात्रों के चरित्रचित्रण, एवं शव्‍दशिल्‍प के संबंध भे गंभीर वक्‍तव्‍य दिया. डॉ. चित्‍तरंजन कर जी नें अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में रामचरित मानस के 'महाकाव्‍य' होने एवं साहित्‍य

मसाज पार्लर : जहां लडकियां मसाज करती हैं

मोबाईल की घंटी बजते ही मैंनें मोबाईल जेब से निकाली. उधर से थानेदार साहब का फोन था. 'क्‍या कर रहे हो' 'कुछ विशेष नहीं सर, नौकरी बजा रहा हूं, आप आदेश करें' मैनें कहा. 'एकाध घंटे की फुरसद निकालो और मेरे पास आवो' साहब नें कहा. 'ओके सर, आपके लिये बंदा हाजिर है, पर काम तो बताओ सर जी' मैंनें नाटकीय अंदाज में कहा. 'मालिस करवाना है यार' थानेदार साहब नें हंसते हुए कहा. 'क्‍या' मैं हकबका गया, एक पल में ही वो फिकरा याद आ गया कि 'पुलिस वालों से न दुश्‍मनी अच्‍छी ना दोस्‍ती' और यह भी 'पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते'. 'अरे घबरा मत मैं सचमुच की मालिस की बात कर रहा हूं, जल्‍दी आ' थानेदार नें पुन: हंसते हुए मुझे आश्‍वस्‍त किया. साहब का आदेश था सो मैं अगले ही पल थाने के लिये निकल पडा. साहब थाने में सिविल ड्रेस में बैठे थे. दुआ-सलाम और चाय-पान के साथ इधर-उधर की बातें होने लगी. बैरक में कैद मुंह लटकाये लोगों के मुंह से कभी-कभी चीखें निकलती और संतरियों के पुलिसिया मंत्रोच्‍चारों से संपूर्ण थाना सुवासित हो उठता. मैं मानवाधिकार वाल

हरेली, टोनही और अंधविश्‍वास : यादों के झरोखों से

आधुनिक संदर्भो में हरेली छत्‍तीसगढ में पर्यावरण जागरण के हेतु से मनाया जाने वाला त्‍यौहार है पर जडो तक फैले अंधविश्‍वास के कारण अधिसंख्‍यक जनता के लिये यह त्‍यौहार तंत्र मंत्र एवं तथाकथित अलौकिक ज्ञान के 'रिवीजन' का त्‍यौहार है. इस संबंध में राजकुमार जी नें पिछले दिनों अपने पोस्‍ट में छत्‍तीसगढ के बहुचर्चित टोनही के संबंध में लिखा. हम भी इस टोनही के संबंध में बचपन से बहुत कुछ सुनते आये हैं. टोनही के संबंध में किवदंतियों से लेकर साक्षात अनुभव के साथ ही इसके बहाने नारी प्रतारणा के किस्‍से छत्‍तीसगढ में सर्वाधिक देखने को मिलते हैं. शासन द्वारा टोनही निवारण अधिनियम बनाना एवं इसे लागू करना इस बात का सबूत है कि छत्‍तीसगढ में इस समस्‍या की पैठ गहरे तक है. टोनही के मिथक को तोडने के साथ साथ अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिये हमारे ब्‍लागर साथी एवं देश के ख्‍यात वनस्‍पति शास्‍त्री डॉ. पंकज अवधिया जी अपने मित्रों के साथ निरंतर प्रयासरत है. गांव से जुडे प्रत्‍येक व्‍यक्ति के साथ टोनही के कुछ न कुछ अनुभव या फिर कहें अनूभूति रही है. मेरे जीवन का आधा हिस्‍सा गांवों में गुजरा है और मैं भी इससे

समुझई खग खगही के भाषा : मैं रामायण की आलोचना जारी रखूंगा - एम.करूणानिधि

केन्‍द्रीय कानून मंत्री एम.बीरप्‍पा  मोईली की लिखी पुस्‍तक 'रामायण पेरूथेदलै' का विमोचन करते हुए तमिलनाडु के यशश्‍वी (?) मुख्‍यमंत्री एवं पोन्नेर-शंकर के लेखक एम.करूणानिधि नें 'प्राण जाई परू वचनु न जाई' जैसे प्रण लेते हुए कहा कि 'मैं बचपन में ही रामायण का आलोचक था. मैं ऐसा करना जारी रखूंगा .'  ( I will continue to be critical of Ramayana ) उन्‍हें इस बात का अहसास है कि सत्‍तारूढ पार्टी उनकी बंदगी 'टेढ जानि सब बंदई काहू' को स्‍वीकारते हुए करती रहेगी और वे लोगों की भावना रूपी हरे हरे चारे को 'चरई हरित तृन बलि पशु जैसे' चरते हुए राम और रामायण को कोंसते रहेंगें. तुलसीदास जी नें 'चलई जोंक जल वक्रगति जद्यपि सलिल समान' लिखकर खून चूसने वाले जोंक के लक्षणों को प्रतिपादित कर ही दिया था. आडे तिरछे विचारों से रामायण की आलोचना करने वाले तथाकथित नामवर के बडबोले पन का गोस्‍वामी जी को आभास था इसीलिये उन्‍होंनें कहा था 'बातुल भूत विवस मतवारे, ते मोहि बोलहि बचन सम्‍हारे.' अब तुलसीदास या बाल्‍मीकि पुन: आकर रामायण में एम. करूणानिधि के कहे अनुसार

छत्‍तीसगढ में लोग नक्‍सलियों के खिलाफ हैं : ब्रिगेडियर (सेवानिवृत) बसंत कुमार पोनवार

छत्‍तीसगढ में संचालित कांउटर टेररिज्‍म एण्‍ड जंगल वॉरफेयर कालेज, कांकेर के डायरेक्‍टर ब्रिगेडियर (सेवानिवृत) बसंत कुमार पोनवार का विगत दिनों बिजनेस स्‍टैंडर्ड में एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। जिसमें उन्‍होंनें कहा है कि नक्‍सलियों को खत्‍म करने और और उनके नेटवर्क को ध्‍वस्‍त करने का यह सबसे उचित अवसर है ('It's high time to destroy the Naxalites')। उन्‍होंनें आगे आशा जताया है कि केन्‍द्र शासन द्वारा नक्‍सलियों पर प्रतिबंध लागाए जाने से संपूर्ण देश में समन्‍वय के साथ काम करने का मौका मिलेगा। लश्‍कर ए तैयबा सहित अन्‍य आतंकी संगठनों से नक्‍सलियों के संबंध को देखते हुए जरूरत पडने पर सेना का सहयोग लिया जा सकेगा। छत्‍तीसगढ एवं कुछ अन्‍य राज्‍यों के द्वारा नक्‍सल गतिविधियों पर विधिक रूप से शिकंजा कसने के बावजूद कोई खास परिणाम नहीं आ पाने के सवाल पर पोनवार नें कहा कि छत्‍तीसगढ में लागू किए गए विशेष जन सुरक्षा अधिनियम की वजह से नक्‍सलियों एवं उनके समर्थकों के विरूद्ध कार्यवाही करना सरकार के लिये अब आसान हुआ है। इसके साथ ही उन्‍होंनें इस प्रश्‍न का उत्‍तर देते हुए स्‍पष्‍ट किया क

11 वीं सदी से लुट रहा है बस्‍तर ...

प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्‍य में छत्‍तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्‍य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्‍तीसगढ की जो छवि प्रस्‍तुत होती थी उसमें बस्‍तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्‍तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्‍पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्‍यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्‍य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्‍कृति व परंम्‍परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्‍यकता पड रही है। विगत दिनों दैनिक छत्‍तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्‍तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्‍द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्‍त्र शस्‍त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्‍यकाल में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया था। यानी लौह अयस्‍क खोदने के लिये न

आखिर ब्‍लाग क्‍या है ... ?

कल प्रकाशित मेरे पोस्‍ट जाके नख अरू जटा बिसाला, सोई तापस परसिद्ध कलि‍काला में मेरे फीड ब्‍लाग रीडर श्री सत्‍येन्‍द्र तिवारी जी नें मेल से टिप्‍पणी की है. टिप्‍पणी में उन्‍होंनें ब्‍लाग के संबंध अपनी राय प्रकट की है. आप क्‍या सोंचते हैं इस संबंध में -  आदरणीय संजीव जी, मैं आपके इस कथन से पूर्ण रूप से सहमत हूँ. (मेरा मानना है कि ब्ला‍ग लेखन मीडिया के समान कोई अनिवार्य प्रतिबद्धता नहीं है इस कारण हम अपने समय व सहुलियत के अनुसार ब्लालग लेखन करते हैं और अपनी मर्जी के विषय का चयन करते हैं। यह कोई आवश्यवक नहीं है ना ही यह व्या‍वहारिक है कि छत्तीसगढ के सभी ब्लागर किसी एक मसले को लेकर प्रत्येक दिन एक सुर में लेखन करे।) ब्लॉग व्यवसायिक नहीं. ऐसा मेरा मानना है. लोगो के मत मेरे मत से भिन्न हो सकते हैं लेकिन लोगो को मेरे ब्लॉग पर मैंने क्या लिखा इस पर नकारात्मक टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं जब तक की उनके बारे में व्यक्तिगत रूप से उसमे कुछ न लिखा हो. आखिर ब्लॉग क्या है? समाचारपत्र या व्यक्तिगत डायरी, जिसे पढने की छूट सबको है. किसी भी ब्लॉग को पढने से पहले मैं सोचता हूँ की इससे शायद इन स

जाके नख अरू जटा बिसाला, सोई तापस परसिद्ध कलि‍काला.

पिछले दिनों कई ब्लागों में बहुत हो हल्ला हुआ कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स कुछ विशेष आवश्यक और ज्वलंत मुद्दों में कुछ नहीं लिख रहे हैं. ब्लाग जगत में सक्रिय रहने के कारण हम पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम पुलिस की बर्बरता और दमन पर चुप्पी साध लेते हैं. पुलिस या प्रशासन के विरूद्ध नक्सल मामलों में कुछ भी लिखने से कतराते हैं। दूसरी तरफ छत्तीतसगढ के ब्लागर्स नक्सली हिंसा पर मानवाधिकार वादियों की चुप्पी पर तगडा पोस्ट ठेलते हैं. ब्लागर्स की चुप्पी के व्यर्थ आरोपों पर मेरा मानना है कि ब्ला‍ग लेखन मीडिया के समान कोई अनिवार्य प्रतिबद्धता नहीं है इस कारण हम अपने समय व सहुलियत के अनुसार ब्लालग लेखन करते हैं और अपनी मर्जी के विषय का चयन करते हैं। यह कोई आवश्यवक नहीं है ना ही यह व्या‍वहारिक है कि छत्तीसगढ के सभी ब्लागर किसी एक मसले को लेकर प्रत्येक दिन एक सुर में लेखन करे। अभी आलोचक पंकज चतुर्वेदी नें एक पत्र पर पुन: छत्‍तीसगढ के कुछ मसलों पर गंभीर सवाल उठायें हैं. जिसका स्पष्ट‍ जवाब जय प्रकाश मानस जी नें दिया है. यदि पंकज जी को एक सामान्य पाठक मानते हुए देखें तो पंकज चतुवेर्दी जी नें जिस आधार पर आरो

छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन क्‍यूं नहीं

छत्तीसगढ में नक्सली तांडव को देखते हुए सचमुच में प्रत्येक व्यक्ति के मुह से अब बरबस निकल रहा है कि अब पानी सिर से उतर चुका है . किन्तु इस समस्या से निबटना यदि इतना आसान होता तो पिछले कई दसकों से फलते फूलते इस अमरबेल को कब का नेस्तानाबूत कर दिया गया होता. बरसों से छत्तीतसगढ के लोग देख रहे हैं, उनकी बोली गोली है वे किसी राजनैतिक समाधान में विश्वास रखते ही नहीं। नक्सलियों का स्वरूप हिंसा है, बिना हिंसा के उनका अस्तित्व ही नहीं है। उनके सिद्धांतों के अनुसार ‘सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रांति को निरंतर जारी रखना’ व ‘आक्रमण ही आत्मरक्षा का असली उपाय है’ और क्रांति व आक्रमण संयुक्त रूप से हिंसा के ध्योतक हैं। सिद्धांतों और वादों की घूंटी पीते-पिलाते हिंसा को अपना धर्म मानते नक्सली राह से भटक गये हैं और अब आर्गनाईज्ड क्राईम कर रहे हैं जिसमें वसूली इनका सबसे बडा धंधा हो गया है। इस धंधे की साख बरकरार रखने एवं अपने आतंक को प्रदर्शित करने के लिए निरीह लोगों व पुलिस वालों की बेवजह हत्यायें की जा रही है। सामान्य जनता तो यहां तक कहती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिनके पास पैसे हैं वे इन्हें

डीजीपी विश्‍वरंजन कविता भी करेंगें और लडाई भी लडेंगें

कल रायपुर में छत्‍तीसगढ शासन के मंत्रियों की कैबिनेट बैठक के बाद पत्रकारों से रूबरू होते हुए प्रदेश के मुख्य मंत्री डॉ.रमन सिंह नें विगत दिनों एसपी सहित 40 पुलिस कर्मियों के शहीद हो जाने एवं प्रदेश के पुलिस प्रमुख के कविता लिखने में व्यस्त होने के सवाल पर कहा कि डीजीपी विश्विरंजन 'कविता भी करेंगें और लडाई भी करेंगे'. एसपी विनोद चौबे सहित 39 पुलिस कर्मियों के शहादत के बाद लगभग सभी समाचार पत्रों में लगातार डीजीपी विश्ववरंजन के कविता करने एवं साहित्य प्रेम में रमें होने की खबरें छापी गई. समाचार पत्रों के मुताबिक कल हुए मंत्रियों की कैबिनेट बैठक में छत्तीसगढ में नक्सली गतिविधियों से निबटने में पुलिस के पूर्णतया असफल होने एवं पुलिस प्रमुख विश्‍वरंजन के साहित्तिक गतिविधियों में रमें होने पर सभी मंत्रियों नें विरोध जताया. मंत्रियों नें यहां तक कहा कि डीजीपी के कार्यालय में सुबह से रात तक साहित्यकारों का जमावडा रहता है जब कोई पुलिस का अफसर डीजीपी से सुरक्षा के मसले पर चर्चा करने आता है तो उसे जल्दी से जल्दी चलता कर साहित्यकारों की महफिल फिर सज जाती है. इसके पहले कांग्रेस के नेताओं न

नमन शहीद एस.पी. विनोद चौबे

विगत रविवार को राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित, छत्तीसगढ के जांबाज पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे सहित 39 जवानों के राष्‍ट्रद्रोहियों से लडते हुए शहीद हो जाने पर हमारी अश्रुपूरित श्रद्धांजली    संजीव तिवारी   छत्तीसगढ भारत का अंग है या नहीं?

राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी, रायपुर की खबरें

विगत सात जुलाई को सृजन गाथा ब्‍लाग पर रायपुर में दस जुलाई को राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी आयोजित किये जाने का समाचार प्रकाशित हुआ. इसके पूर्व निमंत्रण पत्रों एवं आमंत्रण मेल से प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह 2009 की जानकारी प्राप्‍त हो चुकी थी और इस कार्यक्रम में वक्‍ताओं को सुनने के लिये हमारी ललक जाग उठी थी. इसी कार्यक्रम के अवसर पर राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी आयोजित किये जाने के समाचार नें हमारे उत्‍साह को दुगना कर दिया. साथी ब्‍लागर्स से चर्चा होते रही, इसके संबंध में राजकुमार ग्‍वालानी जी एवं बाबला जी का पोस्‍ट आपने पढा ही है.  मेरे एवं साथी ब्‍लागर्स के लिये यह एक अच्‍छा सुअवसर था कि देश के नामी गिरामी साहित्‍यकारों के सममुख ब्‍लाग की उपादेयता पर बहस सुनने और करने का मौका मिलेगा. इस राष्‍ट्रीय ब्‍लागर्स संगोष्‍ठी के आयोजक जयप्रकाश मानस जी नें संगोष्‍ठी का विषय 'छपास पीड़ा का इलाज मात्र हैं ब्लॉग?' रखा था. पोस्‍ट के अनुसार इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि  देश के महत्वपूर्ण आलोचक एवं भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक डॉ. प्रभाकर तथा विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवि एवं आलोचक श्री प्रभात त्र

मेरी कहानी 'पिता का वचन' अन्‍यथा पर

भारतीय - अमरीकी मित्रों का साहित्यिक प्रयास 'अन्‍यथा' के अंक 14 पर प्रसिद्ध कथाकार एस.आर.हरनोट, छत्‍तीसगढ के चितेरे कथाकार मित्र कैलाश बनवासी व लोकबाबू के साथ ही मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई है, इसे इस लिंक से पढा जा सकता है:- कहानी - पिता का वचन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है । संजीव तिवारी