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मई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

इस आम में क्‍या खास है भाई .... ?

सुबह से ही आरंभ हो जाने वाले नवतपा के भीषण गर्मी का जायका लेने के लिए आज मैं अपने घर के चाहरदीवारी में चहलकदमी कर रहा था जहां कुछ फूल, आम और फलों से भरपूर अमरूद के पेड हैं। वैसे ही मुझे ध्‍यान आया कि यहां लगे कुछ पेडों में से आम के एक पेड पर दो आम भी फले हैं। मैंनें आम के दस फुटिये पेंड पर नजरें घुमाई तो देखा दो बडे आम महोदय पेंड में लटके मुस्‍कुरा रहे थे। हमने उन्‍हें कैमरे में कैद कर लिया, कैमरे की फ्लैश चमकते देखकर बाजू वाले पंडित जी नें पूछ ही लिया कि आम में क्‍या खास है जो फोटो खींच रहे हो ? दरअसल इस आम में खास बात यह थी कि इस बैगनपली आम को हमने सात साल पहले कम्‍पनी से अलाटेड 'हाउस' में लगाया था, और पिछले चार साल से इसके फलने की राह देख रहे थे। सात साल बाद जब इसमें बौर आया और जब यह मेरी श्रीमती के नजरों में आया तो वह क्षण उसके लिए खास ही था। मुझे याद है पिछले मार्च में उसने इसे देखने के तुरंत बाद मुझे फोन किया था, मैं उस समय कार्यालयीन आवश्‍यक मीटिंग में, मीटिंग हाल में था और मेरा मोबाईल बाहर मेरे एक सहायक के हाथ में था, फोन में उधर से मैडम कह रही थी कि आवश्‍यक है बात कर

प्रेम साइमन के बहाने - विनोद साव

पिछले पोस्‍ट में प्रेम साईमन जी को अर्पित हमारी श्रद्धांजली  एवं बडे भाई शरद कोकाश जी के अनुरोध को पढकर ख्‍यात व्‍यंगकार, उपन्‍यासकार आदरणीय विनोद साव जी नें भी प्रेम साइमन जी को याद किया और हमें यह लेख प्रेषित किया -   मैंने प्रेम साइमन का कोई नाटक नहीं देखा। मेरी लेखकीय विधाओं में नाट्य लेखन कभी शामिल नहीं हो पाया। मैंने व्यंग्य, उपन्यास और कहानियाँ लिखीं, आजकल यात्रा वृतांत लिख रहा हूं। कुछ टीवी धारावाहिक भी लिखे। पर रंगकर्मी मित्रों के दबाव के बावजूद मैंने नाटक लिखने की कोई कोशिश नहीं की। उसका एक बचकाना कारण यह भी बताया जा सकता है कि दुर्ग-भिलाई में नाटकों के मंचन का केन्द्र प्रमुखतः नेहरु सांस्कृतिक सदन रहा। एक दुर्ग रहवासी होने के कारण यह स्थान मेरे घर से बारह किलोमीटर दूर रहा है। अपने आलसी स्वभाव के कारण बार बार नाटकों को देखने के लिए इतनी दूर आना मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। यद्यपि मैंने दिल्ली मुम्बई प्रवास पर एन.एस.डी. और पृथ्वी थियेटर्स में कुछ नाटक देखे हैं। कुछ हास्य टीवी धारावाहिकों को लिखा भी है। पर नाटक लिखने से पहले यह जरुरी था कि मैं स्थानीय रंगकर्मियों द्वारा खेले

श्रद्धांजली : पटकथा लेखक प्रेम साइमन एक विराट व्‍यक्तित्‍व

छत्‍तीसगढ को संपूर्ण देश के पटल पर दूरदर्शन एवं नाटकों के माध्‍यम से परिचित कराने में मुख्‍य भूमिका निभाने वाले चर्चित पटकथा लेखक प्रेम साइमन का विगत दिनों 64 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया। छत्‍तीसगढ के शेक्‍सपियर कहे जाने वाले प्रेम सायमन फक्‍कड किस्‍म के जिन्‍दादिल इंशान थे । जो उन्‍हें जानते हैं उन्‍हें पता है कि जिन्‍दादिल प्रेम साइमन छत्‍तीसगढ के प्रत्‍येक कला आयोजनों को जीवंत करते नेपथ्‍य में नजर आते थे। उनका माटी के प्रति प्रेम, छत्‍तीसगढी संस्‍कृति, बोली पर गहरी पकड, बेहद संवेदनशीलता और दर्शकों के मन को मथने की अभूतपूर्व क्षमता के साथ ही सहज और सरल बने रहने वाला व्‍यक्तित्‍व आसमान की बुलंदियों पर बैठा ऐसा सितारा था जो आम आदमी के पहुच के भीतर था, सच्‍चे अर्थों में माटीपुत्र। प्रेम साइमन कारी, लोरिक चंदा, मुर्गीवाला, हम क्‍यों नहीं गाते, भविष्‍य, अस्‍सी के दशक में सर्वाधिक चर्चित नाटक विरोध, झडीराम सर्वहारा, अरण्‍यगाथा, दशमत कैना, राजा जिन्‍दा है, भूख के सौदागर, गौरव गाथा, प्‍लेटफार्म नं. 4, 20 सदी का सिद्धार्थ, माईकल की पुकार, मैं छत्‍तीसगढी हूं जैसे कालजयी नाटकों के पटकथा

गुलाब लच्‍छी : छत्‍तीसगढिया नारी को समर्पित कहानी संग्रह

छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी कथाकारों के साथ ही छत्‍तीसगढी कथाकारों नें भी उत्‍कृष्‍ट कहानियों का सृजन किया है और सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक मूल्‍यों की स्‍थापना हेतु प्रतिबद्ध होते हुए धान के इस कटोरे में कहानियों का ‘बाढे सरा’ बार बार छलकाया है। छत्‍तीसगढी कहानियों के इस भंडार को निरंतर भरने का यत्‍न करने वाले आधुनिक कथाकारों में डॉ.मंगत रविन्‍द्र का स्‍थान अहम है। अभी हाल ही में आई उनकी छत्‍तीसगढी कहानी संग्रह ‘गुलाब लच्‍छी’ उनकी चुनिंदा बाईस कहानियों का संग्रह है। यह संग्रह इंटरनेट पत्रिका ‘गुरतुर गोठ.com’ में भी उपलब्‍ध है। छत्‍तीसगढी भाषा में कथा कहानियों की गठरी सदियों से डोकरी दाई की धरोहर रही है। पारंपरिक रूप से कहानियां पीढी दर पीढी परिवार के बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा सुनाई जाती रही है। डोकरी दाई की कहानियों में रहस्‍य और रोमांच के मिथकीय रूप के साथ ही सामाजिक यथार्थ का चित्रण व सामाजिक शिक्षा का स्‍वरूप प्रस्‍तुत होता था । समाज के विकास के साथ ही कहानियों की भाषा, स्‍वरूप व शैली में भी विकास होता गया और परम्‍परागत कहानियों के साथ साथ यहां के लेखकों नें अपनी भाषा में कहानी के इस रचना

अपने करीबी देह संबंधों की कथा क्‍या सार्वजनिक की जानी चाहिए ?

जब अर्जुन सिंह के सितारे सातवें आसमान पर दैदीप्‍यमान थे तब उनके दरबार में चारण-भाटों की कमी नहीं थी। पर अब तो वे दिन लद गए, अब अर्जुन सिंह अपने बीते दिनों को याद करने एवं लोगों को अपना रूतबा जताने के लिए इन चारण-भाटों में से एक से संस्‍मरण लिखा लाए। पत्रकार व साहित्‍यकार रामशरण जोशी नें ‘अर्जुन सिंह – एक सहयात्री इतिहास का’ लिखा इसे छापा देश के बहुत बडे प्रकाशन समूह राजकमल प्रकाशन नें। यह पुस्‍तक संपूर्ण भारत में जमकर बिकी (?) और इसी बहाने चर्चा में जोशी और अर्जुन छा गए (छाये तो वे पहले भी थे)। शायद कथा – कहानी – उपन्‍यास के पात्रों से अहम उसके लेखक की भूमिका होती है उसी तरह जोशी का लेखक व्‍यक्तित्‍व और दमक गया। वर्तमान में यह पुस्‍तक छत्‍तीसगढ के किताब दुकानों में सर्वसुलभ नहीं हो पाई है इस कारण हमें इसके संबंध में जानकारी ‘इतवारी अखबार’ के संपादकीय से मिली। ‘इतवारी अखबार’ व ‘दैनिक छत्‍तीसगढ’ के संपादक सुनील कुमार जी नें अपने कालम ‘असहमत’ में इस पर विस्‍तार से दो अंकों में लिखा तब ‘अर्जुन सिंह – एक सहयात्री इतिहास का’ के लेखक रामशरण जोशी के नेक इरादों व सोंच से हम वाकिफ हुए। सुनील

रांची के नए-नवेले टापर आई ए एस अफ़सर ने किया कमाल

छत्‍तीसगढ में इन दिनों भारतीय प्रशासनिक सेवा के दो युवा अधिकारियों की जनता तारीफ करते नहीं अघा रही है जिसमें से एक हैं रायपुर नगर पालिक निगम के आयुक्‍त अमित कटारिया एवं नगर पालिक निगम भिलाई के नवनियुक्‍त आई.ए.एस. आयुक्‍त राजेश सुकमार टोप्‍पो । छोटे प्रदेशों में शहरी आबादी में दिनो-दिन बेतहासा वृद्वि के साथ ही जनता को आवश्‍यक संसाधन उपलब्‍ध कराने, नगर के सुनियोजित विकास एवं स्‍थानीय प्रशासन का बहुत बडा जिम्‍मा अब नगर निगमों का हो गया है। ऐसे में इन स्‍थानीय प्रशासन के सवोच्‍च पदों में बैठे अधिकारियों की जिम्‍मेदारी एवं कुशल प्रशासनिक क्षमता की अग्नि परीक्षा लगातार हो रही है। रायपुर जैसे घनी बसाहट वाले नगर में अमित कटारिया नें जिस दम-खम से बरसों से सडकों पर अतिरिक्‍त निर्माण कर कब्‍जा जमाए लोगों के भवनों को बिना किसी राजनैतिक दबाव में आये, तुडवाया और सडकों को मुक्‍त कराया। वैसे ही‍ भिलाई के इस युवा आई.ए.एस. नें आते ही लचर कार्यालयीन प्रशासन को लगाम लगाया और नगर के सौंर्दयीकरण व सडकों के चौडीकरण की ओर अपना ध्‍यान लगाया। भिलाई के भीड-भाड से भरे अवैध कब्‍जों वाले सडकों को कब्‍जेधारियों