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दिसंबर, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भाषा के लिये आवश्‍यक है योग्‍य व्‍याकरण (Grammer) का होना

मानक छत्‍तीसगढी व्‍याकरण एवं छत्‍तीसगढी शव्‍दकोश छत्‍तीसगढ राज्‍य के निर्माण के साथ ही छत्‍तीसगढी भाषा को राजभाषा का दर्जा भी दे दिया गया । अब इस भाषा के विकास के लिये सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही स्‍वैच्छिक रूप से क्षेत्र के विद्वानों के द्वारा सहानुभूतिपूर्वक सक्रियता दिखाई जा रही है । भाषा के मानकीकरण के लिये ख्‍यात भाषाविद डॉ.चित्‍तरंजन कर एवं प्रदेश की एकमात्र नियमित छत्‍तीसगढी भाषा की पत्रिका ‘लोकाक्षर’ नें अपने प्रयास आरंभ कर दिये हैं । छत्‍तीसगढ में भाषा के विकास के लिये ‘व्‍याकरण’ एवं ‘शव्‍द कोश’ पर निरंतर गहन शोध व संशोधन हुआ है एवं समय समय पर छत्‍तीसगढी व्‍याकरण व शव्‍द कोश का प्रकाशन भी होते रहा है । व्‍याकरण के लेखक चाहे जो भी हों किन्‍तु प्रत्‍येक प्रकाशन के साथ ही इसमें निखार आता गया है । छत्‍तीसगढ में छत्‍तीसगढी सहित अन्‍य कई बोलियां बोली जाती है, छत्‍तीसगढी भाषा में भी स्‍थान स्‍थान के अनुसार से किंचित भिन्‍नता है इस कारण छत्‍तीसगढी के मानक व्‍याकरण की बहुत समय से प्रतीक्षा थी । इस प्रतीक्षा को दूर किया चंद्र कुमार चंद्राकर जी की कृति ‘मानक छत्‍तीसगढी’ नें । छत्‍ती

दण्‍डक वन का ऋषि : लाला जगदलपुरी

बस्‍तर के लोक जीवन का चित्र जब जब हमारे सामने आता है तब तब एक शख्‍श का नाम उभरता है और संपूर्णता के साथ छा जाता है वह नाम है लाला जगदलपुरी का । साहित्‍य और संस्‍कृति के क्षेत्र में बस्‍तर के पहचान के रूप में लाला जी बिना हो हल्‍ला के पिछले पचास वर्षों से लगातार इस पर अपना छाप छोडते रहे हैं । उनके लेख व किताबें बस्‍तर के एतिहासिक दस्‍तावेज हैं । बस्‍तर के अरण्‍य वनांचल के गोद में छिपे लोक जीवन, साहित्‍य व संस्‍कृति के संबंध में सर्वप्रथम एवं प्रामाणिक जानकारी संपूर्ण नागर जगत को लाला जी के द्वारा ही प्राप्‍त हो सका है । इसके बाद तो लाला जी के सानिध्‍य एवं लेखनी व उनके सूत्रों का उपयोग कर अनेकों लोगों नें रहस्‍यमय और मनोरम बस्‍तर को जनता के सामने लाया और अपनी राग अलापते हुए अपने ढंग से प्रस्‍तुत भी किया जो आज तक बदस्‍तूर जारी है ।   बस्‍तर की लोक संस्‍कृति, लोक कला, लोक जीवन व लोक साहित्‍य तथा अंचल में बोली जाने वाली हल्‍बी–भतरी बोलियों एवं छत्‍तीसगढी पर अध्‍ययन व इन पर सतत लेखन करने वाले लाला जी निर्मल हृदय के बच्‍चों जैसी निश्‍छल व्‍यक्ति हैं । सहजता

सत्‍य की जीत या हार ... ?

 छत्‍तीसगढ का जनादेश आ चुका है, रमन सिंह के नेतृत्‍व वाली भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश में सरकार बनाने की क्षमता हासिल कर चुकी है । इस चुनाव परिणाम के पीछे विकास एवं रमन की छबि है । कांग्रेस नेतृत्‍व में आपसी कलह व भितरधात नें भी इस परिणाम को भरपूर प्रभावित किया है । पूरा राज्‍य रमन के तीन रूपिया किलो चांउर में तुलता हुआ प्रतीत होता है एवं उनकी वर्तमान व भविष्‍य की योजनाओं को जनता की स्‍वीकृति मिलती दीख पडती है ।  इस परिणाम में चौकाने वाला तथ्‍य यह हैं कि प्रदेश में सत्‍ता का समीकरण तय करने वाले आदिवासी क्षेत्रों में भी भाजपा नें अपनी बढत कायम रखी है जबकि समझा यह जा रहा था कि भाजपा सरकार के ‘सडवा जूडूम’ की योजना से आदिवासी त्रस्‍त हैं । सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत याचिका एवं दुनिया भर के तथाकथित विचारकों द्वारा यही प्रचारित भी किया जा रहा था । इसके बावजूद आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की बढत यह सिद्ध करती है कि ‘सडवा जूडूम’ प्रदेश के हित में है । प्रचारित यह भी किया जा रहा था एवं कुछ हद तक हमें भी यह लगता था कि इससे आदिवासियों के प्राकृतिक आवास से उन्‍हें विलग कर अन्‍यत्र शरणा