रावण का आकर्षण सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रावण का आकर्षण

9 अक्टूबर की संध्या दुर्ग के स्टेडियम से रावण दहन के बाद बाहर निकला । मुख्य दरवाजे के पास ही पीछे आ रहे परिवार के कुछ और सदस्यों का इंतजार करने लगा । भीड में से दस पंद्रह पुलिस वाले अचानक प्रकट हुए और सीटी बजाते हुए भीड में जगह बनाने लगे । सायरन की आवाज गूंजने लगी, मैंनें सोंचा कार्यक्रम में आये मंत्री हेमचंद यादव जी या मोतीलाल वोरा जी निकल रहे होंगें । सो अनमने से सायरन की आवाज की दिशा की ओर देखने लगा । नेताओं के लिये बनाई गई खुली जीप में रावण का श्रृंगार किये एक विशालकाय व भव्य शरीर का पुरूष हाथों में तलवार लहराते खडा था । जीप में राक्षसों का मुखौटा पहने व राजसी वस्त्र पहनें लगभग दस युवा भी थे जो लंकापति रावण की जय ! और जय लंकेश ! का जयघोष कर रहे थे । हूजूम का संपूर्ण ध्यान उस पर ही केन्द्रित हो गया । पलभर के लिए शरीर उस कृत्तिम आकर्षण व भव्यता  को देखकर रोंमांचित हो गया । गोदी में उठाए अपने भतीजे को उंगली के इशारे से रावण को दिखाया । मेरा पुत्र भी उस दृश्य व परिस्थितियों को देखकर रोमांचित हो रहा था । समूची भीड जो रास्ते के आजू बाजू खडी थी समवेत स्वर में जय लंकेश ! का घोष कर रही थी और जीप में सवार रावण अपना तलवार हलरा - लहरा कर उनका उत्साह बढा रहा था ।

लगभग दो तीन मिनट तक यह दृश्य आंखों के सामने रहा फिर जीप भीड को चीरती हुई निकल गई । मेरे परिवार के सभी सदस्य तब तक वहां आ गये । भीड कुछ कम होने पर मैंनें अपने 12 वर्षीय पुत्र से पूछा कि तुमने भी जय लंकेश ! का नारा लगाया क्या उसने कहा नहीं किन्तु मन हो रहा था, होठ बुदबुदा रहे थे ।

रावण की जीप के बाद नेताओं एवं शहर के गणमान्य व्यक्तियों की गाडियां सायरन बजाती निकली फिर सौम्य सौंदर्य के प्रतिमूर्ति दो किशोर राम व लक्षण के वेश में राज सिंहासन में एक खुले ट्रक में आसीन गुजरने लगे । माहौल राम मय हो गया, जय श्री राम के नारे गूंजने लगे । हम सब के मुह से ये शव्दे यंत्रवत निकलने लगे । स्टेयडियम से रेस्तोरॉं में खाना खाने के बाद घर आने  तक मेरे मन में रावण का वह रूप और तदसमय की परिस्थितियां उमड घुमड रही थी । लोगों का उत्साह बार बार आंखों के सामने आ जा रहे थे ।


दोपहर में ही मेरे गृह नगर में भीड द्वारा बारह बस जला दिये जाने का समाचार मिल गया था सो सुबह का प्लान वहां जाने का बनाकर मैं सोने लगा । दृश्य गांव का पुन: याद आने लगा, वहां किशोर वय में हम रामलीला में विभिन्न पात्रों को अभिनीत करते थे तब रामयाण सीरियल का प्रसारण दूरदर्शन से नहीं हुआ था । ज्यादातर पात्र मेरे भाई भतीजे या रिश्तेदार ही अभिनीत करते थे । मेरा एक चचेरा भाई अपने वृहद व्यक्तित्व के कारण सदैव रावण बनता था और दूसरा किसी वर्ष राम तो किसी वर्ष लक्ष्मण । हम पूरे दस दिन हिल मिल कर अपनी प्रस्तुति गांव के बीच बने 'गुडी' में टैम्‍परेरी स्‍टेज बनाकर देते थे किन्तु दशहरे के दिन की प्रस्तुति हमें गांव के नदी किनारे के बडे खुले मैदान 'रावण भांठा' में देनी होती थी और वहां गांव के ही पटेल के घर से पूरा श्रृंगार कर जाना होता था । वहां तक पहुचने के लिए राम लक्ष्मण व रावण को तीन सायकल की व्यटवस्था स्वयं करनी पडती थी । गांव में सबको आकर्षित करते हुए जय श्री राम ! व जय लंकेश ! के नारों के साथ मैदान तक जाने में बहुत रोमांच व आनंद आता था । परिपाटी के अनुसार राम लखन सायकल में बैठते तो थे किन्तु उनकी सायकल पैदल हाथ में लेकर कोई चलता था । रावण दस सिर का मुकुट पहने कंधे में धनुष लटकाए एक हाथ में तलवार लेकर अपनी राक्षसी दल के साथ स्वयं सायकल चलाते हुए जाता था ।


यह क्रम दो तीन साल चला फिर घर में मोटर सायकल आ गया और हममे से ज्यायदातर भाई मोटर सायकल चलाना सीख गए । इस बार के दशहरे में एक मोटर सायकल और दावेदार दो, राम और रावण । उस वर्ष राम बनने की बारी मेरे दूसरे भाई की थी, रावण के लिए परमांनेंट मेरा चचेरा भाई । उन दोनों के मन में था कि पटेल के घर से श्रृंगार करके मोटर सायकल चलाते हुए मैदान तक जांए । किन्तु, श्रृंगार कर काफी तू तू मैं मैं के बाद फैसला मेरे बाबूजी के हाथ में गया और उन्होंनें रावण को ही इसके लिये चुना । हम मुकुट पहने मुरदारशंख, काजल व रोली, अभ्रक से अटे मुख में दोनों को लडते देख देख कर हंसते रहे । रावण बना मेरा भाई राजदूत को किक मारकर स्टार्ट किया और अपने चितपरिचित अंदाज में आंखें तरेरता हुआ अपनी राक्षसी सेना के साथ बढ चला । जय लेकेश ! के नारे के साथ गांव की अधिकांश भीड रावण व राजदूत के आकर्षण में उसके पीछे पीछे दौंड पडी । राम बने दूसरे भाई को क्रोध तो काफी आया पर अगले साल देखेंगें, सोंचकर राम लक्ष्मण की टोली सायकल ठेलते पेलते रावण भाठा की ओर बढ चली ।

कुछ सालों तक यह क्रम चलता रहा फिर घर में गाडियों की संख्यां में वृद्वि के साथ ही दूसरे भाई की इच्छा की भी पूर्ति हो गई किन्तु भीड का आकर्षण रावण बना वह भाई ही रहा । रावण दहन के बाद जो स्नेह-प्रेम व श्रद्धा गांव वालों से राम लक्ष्मण बने भाईयों को मिलती थी उसके सामने सभी सम्मान व आर्कषण थोथे पडते थे । किन्तु , किशोर मन उस समय उसका अर्थ नहीं समझता था । आज जब इन दोनों घटनाओं को जोडता हूं तो भी रावण का पक्ष ही हावी नजर आता है । राम का आदर्श पारंपरिक रूप में अटक चुके रिकार्ड तवे की भांति जय जय ! के घोष में सिमट जाता है और जय लंकेश ! पूरी मुखरता के साथ होटो में बुदबुदाता है ।

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. कलयुग मे रावण का ही तो आकर्षण रहेगा संजीव भैया। अच्छा लिखा आपने क्योंकी आप अच्छे इंसान है,ये मैं अच्छी तरह से जानता हूं।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी कही एक एक बात दिल में उतर गई..

    जवाब देंहटाएं
  3. सच है भाई, रावण का ग्लैमर राम से कहीं ज्यादा है। कहां सोने की लंका और कहां पर्णकुटी!

    जवाब देंहटाएं
  4. sanjeev bhai
    ravan ki importance is liyae bhi haen ki raam ka astitv banaa rahey .
    ek ravan naa hota to kya raam itni shidaat sae pujtey
    kalpanik charitr haen sab shyaad bas hamaari aastha sae judey haen
    aur aaj bhi jab kahii koi buraa dikhta haen ham jhaank jhaank kar daekhtey haen par
    achchii ko kaun daekhtaa haen
    sach kadva haen so pachtaa nahin
    regds
    rachna

    जवाब देंहटाएं
  5. ज्ञानदत्त जी से सहमत हुँ ग्लैमर ही कलयुग की असली पहचान हो गयी है !!

    जवाब देंहटाएं
  6. "Environmental awareness songs" par comment dene ke liye shukriya. Apki rachana pasand aai.chhattisgarh bloger main shamil karne ke liye dhanyabad.sambhav ho to news paper main yah jankari awashya den.

    जवाब देंहटाएं
  7. रावण "जय लंकेश" के लिए होठ बुदबुदाने का उत्तर आपके ही एक पुराने पोस्ट में छिपा हुआ है.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म