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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

दुर्ग में दुर्गोत्सव की धूम और उसकी जातीय चेतना

विनोद सा
रायपुर
और राजनांदगांव गणेशोत्सव मनाने के लिए प्रसिद्ध हैं तो दुर्ग में हर साल दुर्गोत्सव की धूम होती है। कहा नहीं जा सकता कि दुर्ग में दुर्गोत्सव को इतनी धूमधाम से मनाने की ललक कहां से पैदा हुई। आरंभ में यहां गुजरातियों द्वारा दुर्गा पूजा मनायी जाती थी। हिन्दी भवन में भी दुर्गा प्रतिमा रखी जाती थी। दुर्गा का पेंडाल रेलवे स्टेशन में दिखा करता था रेलवे के कुछ बंगाली बाबुओं के सौजन्य से। पर बाद में यह दुर्गा पूजा दुर्ग में बहुत तेजी से चलन में आया। और यह दुर्गा पूजा गुजराती या बंगला प्रभाव से भिन्न भी रहा। चाहे दुर्गा निर्माण की मूर्तिकला हो या पूजा स्थल इसके पेंडाल की सजावट हो या इसकी पूजा पद्धति हो यह पूरी तरह से अपनी मौलिकता और स्थानीयता बनाए हुए है। ऐसे लगता है कि दुर्ग में दुर्गा पूजा का जो चलन बढ़ा वह इस शहर से देवी के नाम का साम्य रहा। दुर्ग और दुर्गा नाम की समानता। यद्यपि एक वस्तु वाचक नाम है और दूसरा व्यक्ति वाचक। फिर दोनों के अर्थों में पर्याप्त भिन्नता है। फिर भी इस शब्दनाम का ध्वनिसाम्य कहीं दुर्ग वासियों के मनोविज्ञान को छूता रहा है और इसलिए दुर्गापूजा को यहां की जनता ने हाथोंहाथ ले लिया हो। आज भिलाई जैसे उत्सवधर्मी शहर के लोगों में भी दुर्ग के दुर्गा को देख लेने की ललक बरकरार रहती है।

दुर्ग आरंभ से ही एक जागृत शहर रहा है। शिक्षा, लोकसंस्कृति और राजनीति ये तीन ऐसे क्षेत्र हैं इस शहर के जिसमें यह न केवल छत्तीसगढ़ अंचल में बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान दर्ज कराता आया है। देश के समस्त हिन्दी भाषी राज्यों में दुर्ग पहला जिला था जिसे सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के लिए चुना गया और जैसे भी हो इसे सम्पूर्ण साक्षर घोषित कर दिया गया। आपातकाल में इसने नसबन्दी करवाने में भी देश में अव्वल होने का कीर्तिमान बनाया था। लोकसंस्कृति में इस जिले का एक छत्र राज्य रहा है। तीजनबाई और देवदास इसके अंतर्राष्ट्रीय लोकनर्तक रहे हैं। `दाउ रामचंद देशमुख` के चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति ने छत्तीसगढ़ की लोककला के लिए लाइटहाउस का काम किया और उसके बाद तो जैसे लोकमंचों की बाढ़ आ गई। राजनीतिक चेतना में दुर्ग शहर हमेशा से पूरे अंचल के लिए पथ प्रदर्शक बना रहा। रायपुर के बाद एक यही शहर है जिसने देश को नामी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दिए। सीपी एंड बरार राज्य के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष दुर्ग के दाउ घनश्याम सिंह गुप्त रहे। अपनी राजनीतिक चेतना के बाद भी इसे इस नये राज्य का कोइ्रर् विशेष लाभ नहीं मिल पाया है। प्रशासन या उद्योग का कोई मुख्यालय यहां नहीं खोला गया है। इस मामले में यह रायपुर, बिलासपुर और जगदलपुर शहर से बहुत पीछे है।


दरअसल संस्कृति या राजनीति चाहे कुछ भी हो दुर्ग की अपनी जातीय चेतना काम करती है। यद्यपि इस शहर ने कोई आई ए एस अधिकारी पैदा नहीं किया (सिवा अशोक वाजपेयी के जिन्होंने दुर्ग में केवल जन्म लिया पर इस शहर से कोई ताल्लुक नहीं रखा) न ही यह शहर कोई्र वैज्ञानिक या बड़ा साहित्य मनीषी तैयार कर सका है। पर यहां नागरिक चेतना की मिसाल हरदम देखी जा सकती है। यह अपने अधिकारों के प्रति हमेशा सतर्क और जागृत रहने वाला शहर रहा है। इस शहर के आसपास भी चाहे जिस समुदाय के श्रमजीवी लोग रहे हैं उनके भीतर उनकी जातीय और सामाजिक चेतना काम करती है। इसलिए इस शहर की प्रस्तुतियां अपना अलग छाप छोड़ती हैं और समूचे छत्तीसगढ़ राज्य को अपनी ओर देखने के लिए बाध्य करती हैं। सिविलाइजेशन में यह शहर अग्रणी रहा है। इसलिए भी छत्तीसगढ़ अंचल में स्थायी रुप से बसने के लिए अनेक अधिकारियों और उद्योगपतियों का यह पसंदीदा शहर बन गया है। क्षेत्रफल और आबादी में औसत दर्जे का शहर होते हुए भी यह प्रशासन, चिकित्सा, शिक्षा, रेलवे, बस यातायात और परिवहन व्यवस्था की दृष्टि से महानगरों जैसा प्रभाव छोड़ता है। जबकि महानगरों जैसा आतंक और प्रदूषण यहां नहीं है।


दुर्ग ज्यादा आन्दोलनकारी शहर नहीं रहा है। यद्यपि स्वतंत्रता सेनानियों की एक बड़ी संख्या यहां रही है बाद में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी हुए हैं पर उनकी तासीर आक्रामक नहीं रही है। यह शहर हमेशा अपनी मांगों को अपने विवेकपूर्ण मतदान से चुने गए नेताओं के जरिए करवा लेता है। अपनी नागरिक संचेतना से स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाए रखने में कामयाब हो जाता है। इसे एक मायने में एक भाग्यशाली शहर भी माना जाता है जो बिना ज्यादा उठा पटक किए अपने लाभ और उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है।


दुर्ग की इस सामुदायिक चेतना को उसके संस्कृति कर्म में भी देखा जा सकता है और इसमें दुर्गा पूजा भी शामिल है। यहां गंजपारा और पद्मनाभपुर जैसे पूंजीपति इलाके हों या ढीमर पारा, बैगापारा, शिवपारा और मठपारा जैसे मजदूरों और श्रमजीवियों का इलाका हो। इन दो विपरीत धु्रवांत वाले क्षेत्रों में दुर्गापूजा की होड़ एक समान दिखलाई देती है। उनकी भव्यता में कहीं कोई कसर नहीं। जैसे पूंजीपतियों से होड़ लेने की ठान ली हो सर्वहारा वर्ग ने। विद्युत झालरों का बेहिसाब प्रदर्शन अगर पूंजीपति इलाके में है तो पेंडालों और मूर्तियों की कलात्मक प्रस्तुति सर्वहारा क्षेत्रों में है। यह विस्मित कर देने वाला है कि शहर में दुर्गा की श्रेष्ठ कलात्मक मूर्तियां ढीमर पारा और बैगापारा जैसे मोहल्लों में स्थापित हैं। जिसे दर्शक इस अचम्भे के साथ देखता रह जाता है कि इन पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों में कला की यह सुघड़ चेतना आयी कहॉ से? जबकि कला समीक्षकों ने बहुत पहले ही यह स्थापित कर दिया है कि कला का प्रस्फुटन तो श्रम सीकर वाले हाथों से होता आया है। अगर इन मूर्तियों को इस समुदाय के लोगों ने अपने हाथों से नहीं भी बनाया है तो भी मूर्ति को देखने परखने का वह सौन्दर्यबोध तो है जो पूंजीपतियों और उंची जातियों की तुलना में कहीं अधिक है। जहां आस्था का सवाल है वहां दुर्गापूजा पर्व में उनकी गहरी आस्था चमक दमक वाले श्रृंगारों से ओतप्रोत मूर्ति की तुलना में चंडी और शीतला माता जैसी आदिम संस्कारों से युक्त मूर्ति और मंदिरों के प्रति है। जहां जसगीत का अनवरत गायन जोरों पर है। यहां दुर्गा, दशहरा और उर्स पाक मनाने का जुनून इस कदर सवार है कि शहर के सभी स्टेडियमों में दशहरा मनाया जाता है। यह हास्यास्पद भी हो जाता है कि इन क्रीडांगनों में शहरवासियों का सबसे प्रिय खेल राम-रावण युद़्ध है।


रोजगार के अवसर यहां कम होने, रोजगार के नाम पर केवल भिलाई पर निर्भर रहने और छत्तीसगढ़ का अपना अलग राज्य बन जाने के बाद भी कोई विशेष तवज्जो न पाने वाला दुर्ग अपने पुराने दमखम पर अब भी सम्मोहन बनाए हुए है और यह आज भी अपनी आधुनिक सुख सुविधाओं के महल के भीतर अपने लोकजीवन का दुर्ग भी खड़े रखता है।


(इसके पूर्व भी मेरे आलेख इस ब्‍लाग पर प्रकाशित हुए हैं अब मैं इस आलेख को बतौर 'आरंभ' के सहयोगी ब्‍लाग लेखक के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं , भविष्‍य में इस मायावी दुनियां में नियमित रहने का प्रयास करूंगा)

विनोद साव

मुक्तनगर, दुर्ग ४९१००१
मो. ९९०७१९६६२६

टिप्पणियाँ

  1. स्वागत है साव जी आपकी कहानी पढता रहता हु संजीव जी के प्रयास से॥ आपके दुर्ग मे बस एक आ की मात्रा की कमी है फ़िर वह दुर्गा हुयी ।उसी सजगता को आ कहकर बुलाना होगा और क्या?

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  2. बहुत अच्छा लगा पढ़ना!! आभार.

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  3. बहुत बढ़िया!
    साव जी का स्वागत है ब्लॉग लेखन में।

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  4. बहुत मेहनत से पोस्ट बनाई है। धन्यवाद।
    दुर्ग में भी दुर्गापूजा का माहौल रहता है - यह जानकारी बढ़ी।

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