विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! करती हुई वह बच्ची मेरे बाईक के आगे बैठी सडक से गुजरने वालों पर अपनी उंगली से गोली चलाने का खेल खेल रही थी । अपनी तोतली बोली में उन शव्दों को नाटकीय अंदाज में दुहराते जा रही थी । मैंनें उससे पूछा- ‘क्या कर रही हो ?’ ‘गोली चला रही हूं !’ ‘किसे ?’ ‘तंकवादी को !’ उसने अपनी तोतली जुबान में कहा । मैं हंस पडा, ‘ये तंगवादी कौन हैं ?’ ‘जो मेरे पापा को तंग करते हैं !’ उसने बडे भोलेपन से कहा । मैं पुन: हंस पडा । तब तक चौंक आ गया, चौंक में उसके मम्मी-पापा खडे थे । मैं उसे उनके पास उतारकर आगे बढ गया, वो दूर तक मुझे टाटा कहते हुए हाथ हिलाते रही । आज लगभग चार साल बाद उससे मेरी मुलाकात हई थी, वह रिजर्व पुलिस बल के मेन गेट पर सडक में टैम्पू का इंतजार करते अपनी पत्नी व चार साल की बच्ची के साथ खडा था । मैं अपनी धुन में उसी रोड से आगे बढ रहा था, दूर से ही मुझे पहचान कर वह हाथ हिलाने लगा, ‘सर ! सर !’ मैं उसे अचानक पहचान नहीं पाया । हमेशा गार्ड की वर्दी में उसे देखा था, यहां वह टी शर्ट व जींस में खडा था । मैं किसी परिचित होने के भ्रम में उसके पास ही गाडी रोक दिया । उसने