उफनते कोसी को देख शिवनाथ की यादें : संस्‍मरण सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

उफनते कोसी को देख शिवनाथ की यादें : संस्‍मरण

कोसी की तबाही का मंजर टीवी व समाचार पत्रों पर देखकर स्वाभाविक मानवीय संवेदना जाग उठी है देश भर से लोग मदद के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग कर रहे हैं । उफनती कोसी को टीवी में देख कर उसकी भयावहता को मैं छत्‍तीसगढ से ही महसूस कर रहा हूं । ऐसी ही एक बाढ (कोसी की बाढ से काफी छोटी) की स्थिति से एक बार मेरा भी सामना हुआ था उसकी यादों को मैं आप लोगों के साथ बांटना चाहता हूं ।

मेरा गांव छत्तीसगढ में शिवनाथ नदी के एकदम किनारे बसा है, घरों से नदी की दूरी बमुश्किल 100 मीटर होगी । शिवनाथ छत्तीसगढ की दूसरे नम्बर की बडी नदी है, इसमें खारून, हांफ, आगर, मनियारी, अरपा, लीलागर, तान्दुरला, खरखरा, अमनेरा, खोरसी व जमुनियां आदि नदियां मिलती हैं एवं शिवनाथ शिवरीनारायण में जाकर महानदी से मिल जाती है । मेरे गांव से दो किलोमीटर पूर्व ही शिवनाथ व खारून का संगम है (इस संगम का चित्र मेरे ब्लाग के हेडर में लगा है) इन दोनों नदियों के मिलने के कारण यहां से शिवनाथ अपने वृहद रूप में बहती है ।

वर्ष 1994 में छत्तीसगढ की नदियों में अतिवृष्टि के कारण भीषण बाढ आई थी, महानदी, शिवनाथ व खारून नें समूचे छत्तीसगढ के पठारी हिस्से  को जलमग्न कर दिया था । मैं इस अवधि में भिलाई में अपने संस्थान में कार्यरत था, दुर्ग-भिलाई में लगातार बारिस हो रही थी जिससे कामकाज सब प्रभावित हो रहे थे एवं मैं लगभग खाली था रोज शाम को भिलाई से दुर्ग जाकर शिवनाथ के बढते कदमों को नाप आता था । बचपन से मेरी आदत रही है कि बाढ के समय में समय मिलते ही नदी के किनारे जाना एवं पानी की सीमा में दो चार लकडियां गडा कर निशान बनाना फिर एकाध घंटे बाद पुन: वहां जाकर जलस्तर को बढते या घटते देखना फिर गांव भर ढिंढोरा पीटना कि गंगरेल से पानी छोडा गया है, बाढ तेजी से आ रही है गुणा भाग करते हुए बताता कि इतने समय में इतना दूर तक पानी चढ जायेगा । सो यहां भी प्रत्येक शाम जाकर ऐसा ही निशान लगा आता था जो निरंतर मिट रहा था ।

बढते पानी को देखकर मन गांव के बचपन के दिनों को याद करने लगा, तीन चार दिन बाद मैं अपने गांव जाने के लिये तैयार हो गया, सडक मार्ग से रायपुर तक गया वहां से सिमगा के बीच पडने वाले नालों में पानी उफान पर था सो रेलमार्ग से तिल्दा गया वहां से पुन: सडक मार्ग से सिमगा पहुचा । मेरे बडे भाई साहब परिवार सहित सिमगा में रहते हैं जो तहसील प्लेस है यहां से मेरा गांव जबलपुर रोड शिवनाथ पार कर अंदर भाग में लगभग आठ किलोमीटर दूर है ।

गांव तक पहुच पाना संभव नहीं था क्योंकि सिमगा शिवनाथ पुल में लगभग बीस फुट पानी था । भाभी नें बताया कि गांव में मां-बाबूजी बीमार हैं और यहां आ पाना अब संभव नहीं है । पिछले बीस सालों में इतना भीषण बाढ नहीं आया था, गांवों में लोग फंसे थे सरकार द्वारा हेलीकाप्टर से राहत सामाग्री गिराई जा रही थी । सेना के जवान नावों के साथ सिमगा में कैंम्प कर रहे थे और गांवों से दूर पेंडों एवं इक्का दुक्का घरों के छप्परों में फंसे लोगों को निकालने व राहत सामाग्री पहुचाने में लगे थे ।

उत्सुकता नें मुझे पुन: नदी के किनारे पर ले आया, पर किनारा गायब था शिवनाथ सिमगा शहर तक पहुच चुकी थी । मन में पुन: बचपन भर आया क्योंकि कई बार बढते शिवनाथ के पानी को मैंने छूकर माथे में लगाया फिर पैर छुआया और अगले घंटों से शिवनाथ वापस अपने किनारों में सिमटने लगी, दादा मजाक में कहते थे कि ‘तोर चरन धोवाये बर आये हे रे गंगा मईया हा, पांव पर अउ चरन धो, चल दिही’ । शायद यही सोंचकर पानी को माथे से लगाया हाथ पांव धोया और वापस भईया के घर आ गया । दूसरे दिन शिवनाथ वापस जाने के बजाय और आगे बढ आई । सुबह नहानें और बाढ में मस्ती करने के लिये गया तो वहां सैनिक दल में भिलाई का मेरा एक मित्र सहपाठी मिल गया । दुआ सलाम के बाद पता चला कि वह सेलर है, मैनें मजाक में ही कह दिया कि मुझे मेरे गांव ले जाओगे क्या, वह तुरत अपने आफीसर से पूछ लिया कि यह मेरा दोस्त है और इधर के गांव का रहने वाला है इसे क्षेत्र का अनुभव है और हमें उधर ही जाना है यह भी हमारे साथ जाना चाहता  है, क्या हम इसे अपने साथ ले चले । उसका आफीसर किंचित ना नुकुर के बाद मान गया क्योंकि नाव में आस पास के गांव के दो कोतवाल भी थे जो मुझे जानते थे । इतने सहज रूप से भ्रमण का कार्यक्रम बनने पर मैं आनन फानन में बडे भाई के घर साथ आये भतीजे को वापस भेजकर सेदेशा भेजा और मन ही मन प्रफुल्लित होने लगा ।

चार बडी नावों की टीम तैयार थी, हम लोग इस बडी नाव को ‘मलगी डोंगा’ कहते हैं । इसकी संख्या यहां गिनतियों में है यहां छोटी डोंगियां ज्यादा है, इन बडे नावों को सेना ही लेकर आई थी । मैं ‘मलगी’ नाव में चढ गया, हम सिमगा से दक्षिण पश्चिम में लहरों व भंवरों को पार करते हुए, नदी के उस पार पहुंचे । नदी के पार का मात्र अनुमान ही था पानी के धार का पार तो अंत्यंत विस्तृत था । उस दिन बारिस बंद थी सूर्यनारायण लुक छिप रहे थे । कुछेक जगहों पर पेडों के उपरी हिस्सें नजर आ रहे थे बाकी चारो तरफ जहां तक नजर जाती पानी ही पानी, पूर्ण वेग के साथ बहती व भंवर मारती धारा । इधर बंबूल के वृक्ष बहुतायत है जिनकी उंचाई औसतन पंद्रह बीस फुट होती है पर ये उपर से घने होते हैं इस कारण पानी में भारी खलबली मचा रहे थे । पेंडों के शेष हिस्सों में सांप, बंदर व अन्य छोटे जानवर जगह जगह चिपके सांसों के साथ जद्दोजहद कर रहे थे, चींटिंयों का तो बोझा बोझा लगभग पांच सात फिट व्यास के तुकडे कहीं कहीं पेडों में अटके थे तो कहीं कहीं पानी में बह रहे थे ।

हमारे साथ चले रहे एक सैनिक नें हमें बतलाया कि कल ऐसा ही एक छोटा चींटी का टीला बचाव दल के नाव से टकरा गया था जिससे करोडों चींटिंयां नाव में आ गई थी, सैनिकों की सहनशक्ति व बहादुरी के कारण नाव डूबते डूबते बची थी उस नाव में सवार पांचों सैनिकों को चीटियों नें जगह जगह काटा है उनका शरीर सूज गया है जिनका कैम्प में इलाज चल रहा है । उसने बतलाया था कि चीटिंयों के बहते ढेर से टकराने के कारण ढेर तुकडों में बंट गया और एक हिस्सा उछलकर नाव में सैनिकों के उपर ही गिरा था, सैनिकों नें अपने आप को संयत रखते हुए शरीर में हलचल नहीं होने दिया जिसके कारण चीटिंया नाव में एक जगह इकत्र हो गई बाद में फावडे से उन्हें पानी में फेंका गया ।

आगे उंचे पीपल, बरगद, इमली, कौहा आदि के बडे व फैले हुए पेंड पानी में डूबे थे जिसके बाजू से नाव के गुजरने से दिल धक से करने लगता था क्योंकि पानी में डूबे पेडों के आजू बाजू तेज बहाव के कारण भंवर पैदा होती है जो नांव को अपनी ओर खींचती है । इधर बीच बीच में चार पांच इंट भट्ठे थे पानी में डूबे होने के कारण इनकी चिमनियां व खपरैल अपना ठिकाना बता रहे थे साथ ही भूमि का कुछ पठारी हिस्सा भी नजर आ रहा था जिसमें कुछ मजदूर परिवार फंसे थे । पिछले तीन दिनों में सैनिक इन भट्ठों से चार-पांच की संख्या में क्रमश: बहुतायत मजदूरों को सुरक्षित निकाल कर कैम्पों में ले गये थे पर कुछ हठी मजदूर अब भी वहां से बाहर नहीं आये थे उनकी जिद के कारण सैनिकों को उनकी सेवा के लिये खाने के पैकेट ले जाकर वहां देना था । नाव जब वहां पहुचा तब मजदूरों नें मुझे नाव पर देखकर आश्चेर्य प्रकट किया । मैनें उन्हें समझाने की कोशिस की कि कैम्प में चले जाओं तुम लोगों के कारण नाहक प्रशासन को तुम्हारी चिंता करनी पड रही है, कैम्प में सारी व्योवस्थायें हैं, पर वे नहीं माने । उनमें से एक मेरे हमउम्र नें तो यह कह कर बात समाप्त कर दी कि फोकटउवा गरमा गरम खाये ल मिलत हे दाउ, उंहा कैम्प  के गिद्ध मसानी ले तो बने हे, हम जानत हन हमर डीह नई बूडय ।

यहां से होते हुए हम आगे बढे लगभग पांच किलोमीटर पानी में सफर उसके बाद मेरा गांव था हमारे नाव को अगले कैम्प तक लगभग दस गांव के लोगों तक सीमित खाने के पैकेट पहुचाने थे एवं गस्त कर वापस जेवरा में कैम्प कर रही पार्टी से मिलकर वापस आना था । नाव में बैठे कोतवाल नें बताया कि मेरे गांव में उस समय लगभग 200 परिवारों की आबादी रही होंगी जिसमें से लगभग सौ परिवार ही गांव में रह गये थे बाकी पानी के बढने के पहले ही मवेशियों व पालतू जानवरों के साथ पास के कीरितपुर कैम्प में चले गये थे । हम आगे बढ रहे थे, चारो तरफ फैले पानी के महासागर के बीच गांव का कुछ हिस्सा नजर आ रहा था जो धीरे धीरे नजदीक आ रहा था और मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी, अपनों से ऐसी विषम परिस्थिति में मिलने की उत्कंठा चरम में थी ।

दोपहर लगभग बारह बजे के करीब हम गांव के किनारे पहुचे । दूर से नावों को आते देखकर गांव वाले उन छप्परों पर चढकर इकट्ठे हो गये थे जहां पर नावों को धाराओं से बचाते हुए खडा किया जा सकता था । भीड में बुजुर्ग और लीडर मेरे बाबूजी ही थे, मुझे देखकर सबने आश्चर्य किया कि इतनी बाढ में कहां ‘मरे बर गांव आ गेस’ । मैनें उन्हें बतलाया कि मैं तो सिर्फ आप लोगों के लिये दवाई लेकर आया हूं, मैं नावों के साथ ही वापस चला जाउंगा । गांव में मेरे चचेरे भाई और भतीजे थे जो मेरे हमउम्र थे और मेरे लंगोटिया थे । उन लोगों नें मुझसे अनुरोध किया कि नावों की टीम अमोरा कैम्प से वापस इधर से होते हुए ही सिमगा जायेगी अत: तुम यहीं उतर जाओ वापसी में चले जाना, किंचित ना नुकुर के बाद मैं गांव में ही रूक गया और चारो नाव आगे गांवों की ओर बढ गए ।

अब मेरे साथ मेरा गांव था एवं मेरे मित्र थे, गांव चारो ओर से बाढ से घिरा हुआ था जिसमें तेज बहाव थी । गांव की लगभग बीस डोंगियों का प्रभार बीस नवयुवकों के हाथ में था जिसमें से एक मुझे मिल गया था, बरसों से यह मेरे गांव की परिपाटी रही है कि जब गांव में बाढ आती है तो नदी के किनारे बसे मछेरे कुछ प्रतिष्ठित घरों के दरवारों में एक एक डोंगियां बांध आते हैं ताकि हमें गांव में कहीं आने जाने एवं दैनिक क्रियाकलापों से निवृत्ति के लिये आसानी हो, खतरा ज्यादा बढने से इन्हीं घरों के निर्देशों पर गांव वाले सुरक्षित स्थानों पर निकल जाते थे, हालांकि यह मैनें अपने ग्रामीण जीवन के बीस सालों में कभी नहीं देखा, सभी डटे रहते हैं गांव में, कोई बाहर नहीं जाना चाहता । पानी बढने पर गांव की मवेशियों एवं अतिबुजुर्ग व बीमार व्यक्तियों को पास के ही पानी से अप्रभावित गांव किरितपुर में पैदल चलने लायक पानी को पार कर शिफ्ट कर दिया जाता रहा है । एक दो बार तो पानी ज्यादा बढने के बाद ही हमारी गायें वापस हमारे घर आ गई थी जिन्हें हमने नाव से सूखे जगह में पुन: खदेडा था ।

जिस स्थान से हमारे गांव के लोग किरितपुर जाते हैं उस स्थान में लगभग 200 मीटर का ऐसा स्थान है जहां गांव में पानी चढ जाने के बाद पानी चढता है । बाढ के दिनों में इस स्था न पर दो नालों का पानी एक दूसरे से मिलने के लिये जिस तरह से आतुर नजर आती है उसे मैं सदैव याद करता हूं क्यों कि इस दृश्य को देखने के लिये मैं घंटों वहां बैठे इसका इंतजार किया हूं एवं दोनों नालों को धीरे धीरे अपना जलस्तर बढाते हुए इंच इंच बढते हुए फिर फुटों से मीटरों का फासला तय करते और सदियों से दो बिछडों के मिलन के दौड को देखा हूं जो पूरे वेग के साथ एकदूसरे को आलिंगनबद्ध करती है, इन क्षणों को मैं ताउम्र विस्मृत नहीं कर पाता हूं । दोनों के आलिंगनबद्ध होनें और उस सुरक्षित स्थान पर जलस्तर कमर भर होनें के बाद वहां से गुजरना मुश्किल हो जाता है उसके बाद ही नदी अपना मुख्य बहाव केन्द्र गांव को अपने आगोश में लेते हुए बहने लगती है और खतरा बढ जाता है, पर हमने बरसों इसे यूंही उफान में आते और दो चार दिन में वापस जाते देखा है इस कारण इससे भय नहीं लगता ।

जब मैं गांव पहुचा था तब स्थितियां इससे भी आगे निकल गई थी । गांव के सभी लोग दो तीन पक्के मकानों में शरण लिये थे जिसमें एक मेरा घर भी था । एक एक कमरों में पचास पचास लोग रह रहे थे, सामूहिक रसोई पकाई जा रही थी । मेरे घर का सब सामान अस्त। व्यस्तम था एवं लोगों को जमीन ज्यादा उपलब्ध कराने के लिये कुर्सियां व पलगें हटा ली गई थी । बंद पडे बिजली के बोर्डों को गांव के बच्चे ‘टूडूडूंडूं $$$$$$$ .......’ करते हुए इस तेजी से आफआन कर रहे थे कि वे बैंजों या हारमोनियम बजा रहे हों । इन सबके लिये गरियाना वक्त के अनुसार उचित नहीं था । इतना तो मैं बचपन से देखते आ रहा हूं कि जब जब बाढ आती है तब तब गांव भेदभाव छोडकर एक हो जाता है, दिल से दिल मिल जाते हैं और हमें अपना दायित्व पूरा करने का भी पूरा अवसर मिल जाता है जिससे कि हमारा पूरा परिवार बरसों तक आत्मिक संतुष्टि महसूस करता है । यह हमें परंपरा से मिलती आई सीख है जिसे हमने स्वाभाविक तौर से ग्रहण किया है ।

मेरे गांव में अधिकाश घर मिट्टी के हैं एवं 200 घरों की संख्यां वाले गांव के सभी घरों का ग्राउंड लेबल गलियों से लगभग चार पांच फुट उपर है, नींव में पत्थरों की जुडाई है उपर मिट्टी, खपरैल व फूस के छप्पर हैं । अपनी अपनी औकात व पसंद के अनुसार सभी के घर हैं किन्तु सभी घरों में एक चीज अवश्य है और वह है दो घरों के बीच के दीवालों पर एक तीन-चार फुटा मिट्टी का आला जिसे आल्मा‍री के रूप में लकडी से पार्टीशन कर बनाया गया है । बचपन में जब मैं अपने बाबूजी से इसके कामन होने एवं यहीं से घरों में सेंध लगा कर चोरी होने पर प्रश्न करता था तो बाबूजी कहते थे कि यह इमरजेंसी एक्जिट है जैसे बसों और ट्रेनों में होती है, तो मुझे समझ में ही नहीं आता था कि इस इमरजेंसी एक्जिट की घरों में क्या आवश्यकता है किन्तु जैसे जैसे मैं बडा होता गया इस इमरजेंसी एक्जिट का कमाल देखता गया । जैसे ही बाढ की पानी गलियों में भरकर आवाजाही को बाधित करती है, घरों-घर इस इमरजेंसी एक्जिट को फोड दिया जाता है और एक-दूसरे के घरों से होते हुए पूरा गांव एक संयुक्त आवास में तब्दील हो जाता है ।

जब मैं वहां पहुचा तब यह इमरजेंसी एक्जिट ओपन था, कहीं कहीं पानी का स्तर दीवार में लगे पत्थरों से भी उपर चढ गया था इसलिये मिटटी के दीवार ढह रहे थे फलत: मिट्टी के घरों वाले लोग पक्के मकानों को अपना शरणस्थली बना लिये थे जिसको जो समेटते बना समेंट कर एक जगह सिमट गये थे, अनाज की बोरियों को यहां से वहां शिफ्ट किया जा रहा था और कईयों का रोना भी चल रहा था कि वे तो अनाज को सुरक्षित जगह पर रख ही नहीं पाये पानी चढ आया ।

बहुत से लोग बीमार थे किन्तु गांव में लोग जीवट होते हैं उनकी  रोगप्रतिरोधक क्षमता नें उन्हें बचाये रखा था । हॉं नई व्याह कर आई बहुओं का हाल बुरा था उनमें से कईयों का वास्ता ऐसी बाढ से कभी नहीं हुआ था सो वे हर समय सुबक रही थी गांव के देवरों के द्वारा मजाक में डराये जाने पर दहाड मार कर रोनें लगती थी जिन्हें  बडे बूढे समझा रहे थे । यह सब मेरे लिये सामान्यं था, मां बाबूजी की तबियत उस दिन कुछ ठीक थी । मैं अपने मित्रों के साथ अपनी डोंगी में गांव की गलियों के भ्रमण के लिये निकल गया जैसे पेरिस के सडकों का भ्रमण कर रहा हूं । पर यह भ्रमण बहुत खतरनाक था क्योंकि गलियों में भरे पानी व बहाव से कई दीवार लगातार धाड धाड गिर रहे थे और पांनी में भीषण हलचल मचा रहे थे ।

मैं नाव चलाने में मेरे भाईयों से कम प्रवीण हूं इसलिये मेरे मित्र व भाई मुझे नाव नहीं चलाने देते गांव के ही किसी लडके को मेरी सेवा में लगा देते हैं और कहते हैं कि तू बस बैठे रह ड्राईवर सहित कार मिला है तुम्हें क्योंकि तू बडे दाउ (मेरे पिताजी मेरे मालगुजार दादाजी के बडे बेटे हैं) का छोटा बेटा है ना ‘छोटे दाउ’ । पर मैं उनकी बातों को खूब समझता हूं और जिद कर पतवार हमेशा छीन कर नाव चलाता हूं मेरे इसी जिद के कारण मेरी नाव उस दिन पलटते पलटते बच गई और मैं पानी में कूद गया, नाव के सामान्य होते ही मैं पुन: उस पर आ गया ।  देर तक हा हा ही ही चलती रही तब तक आसमान में हेलीकाप्टर मंडराने लगा ।

छतों में पहुचकर बच्चे हाथ हिलाने लगे । देखते ही देखते हेलीकाप्टर से बोरियों में कुछ गिराये जाने लगा जो लोगों के छप्परों को फोडते हुए गिर रहे थे कई तो पानी में भी गिर रहे थे । लोग इमरजेंसी एक्जिट से ‘बुलुंग बुलुंग’ दौड दौड कर बोरों को ‘सकेलने’ लगे । यहां मैनें पहली बार सरकारी सहायता पाने के बाद लोगों के मनों में वैमनुष्यता को पनपते देखा और उन बोरों को छुपाते, छीनते-झपटते देखा । इन बोरों में पूरी-सब्जी, इलैक्टाल पाउडर व दवाईयों के पैकेट थे जिसकी आवश्यकता सभी को थी किन्तु राहत सामाग्री सीमित थी । हमने लोगों से कहा भी कि सभी बोरियों को एक जगह इकट्ठा कर मिल बांट कर खाओ पर लोग नहीं माने । यह क्रम अगले चार दिनों तक चलता रहा ।

शाम को सैनिकों के नाव गांव नहीं आये, शायद वे नदी के उस पार से होते हुए सिमगा की ओर निकल गए थे । मेरे खुशी का ठिकाना न रहा, मुझे इस बाढ में गांव वालों के साथ, अपने मित्रों के साथ रहने को जो मिल रहा था । मेरी मॉं बता रही थी कि शिवनाथ नें लगभग बीस वर्ष पहले इतने जल स्तर को छुआ था उस वक्त मैं लगभग पांच-छ: वर्ष का था, गलियों में बाढ के पानी में बहते और अपनी प्राण रक्षा के लिये घरों में घुसते सांपों व चूहों को छोटे से लकडी के डंडें से पानी में वार कर भगागाता था । उस समय की बातें तो मुझे याद नहीं है किन्तु इसके बाद के इससे कुछ कम जलस्तर के कई बाढों का सामना मैनें किया है ।

तीन दिन बाद जलस्तर कम होने लगा और चौथे दिन नदी अपने किनारों में सिमट गई पर जाने के बाद जो मंजर हमने देखा वो दिल दुखाने वाला था, हालांकि किसी भी प्रकार से जान की क्षति नहीं हुई थी किन्तु माल की क्षति सामने नजर आ रही थी लगभग 90 प्रतिशत घरों का नामोंनिशान मिट गया था । गांव के नाम पर सिर्फ कुछ मकान बचे थे बाकी सब सफाचट था । खपरैल व फूस के छप्पर गांव से दूर बहकर कहीं कहीं जमीन में पसरे पडे थे । मवेशियों की फूली हुई लाशे यहां वहां अटके पडे थे, किसानों की कई काठ की गाडियां भी इधर उधर बह कर लटके पडे थे । चारो तरफ फसलों व घांसों के सडने की तेज गंध फैली थी । इंट भट्ठे वाले का एक ट्रक भी बहुत दूर नाले में बहते हुए धंसा-फंसा था । मैं स्थिति सामान्य होते तक दो दिन और गांव में रहा, इस बीच पटवारी गांव में हुए सम्पत्ति के नुकसान का आकलन करने आ पहुचा था और जुगाड तोड व लेन देन की बातें तय होने लगी थी । मैं गांव वालों के चेहरों पर दुख की अमिट छाप के बावजूद फिर से उठ खडे होने की ललक को देखकर वापस भिलाई आ गया ।

हालांकि मेरे गांव वालों को उठ खडे होने में लगभग दो तीन साल लगे किन्तु किसी भी की जान नहीं गई । कोसी नें तो हजारों लोगों को लील लिया, भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे एवं बाढ में फंसे या प्रकोप से पीडित लोगों को इस विभीषिका से निबटने एवं मेरे गांव की तरह फिर से उठ खडे होने की शक्ति प्रदान करे.
संजीव तिवारी
(यह लेख उदंती.काम के सितम्‍बर' 2008 में प्रकाशित हुई है )

टिप्पणियाँ

  1. घटनाएं तो सबके जीवन में घटती ही रहती है , पर इस अंदाज में बयां कर पाना काफी मुश्किल होता है। खैर उस मुश्किल घड़ी में भी प्रकृति का सहयोग आपके साथ बना रहा और आपके कारण घरवालों को थोड़ी राहत मिल गयी। बहुत ही अच्छा प्रस्तुतीकरण।

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  2. क्या जीवंत चित्रण किया है आपने। आपमे सचमुच का बडा लेखक छुपा बैठा है। निरंतर लेखन करे तिवारी जी। शुभकामनाए।

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  3. sahi kaha sanjeev bhai,badh se ladne ke liye bahut himmat chahiye.aapne apne gaon ki badh se ladai ka achha chitran kiya,salam unki aur aapki bahaduri ko

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  4. bhai sangam aur shivrinarayn jaane ka saubhagy mujhe bhi mila hai.
    aap logon k blog par aana ghar-gaon aane ka sukh hota hai.

    blog-guru kabhi hamare blog taraf bhi aane ka kasht kijiye aur kuch takneeki sujhao dijiye.
    apan is maamle me shuny hain.

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  5. माई गुडनेस! इतना जबरदस्त अनुभव आपने परोसा है पोस्ट में। और हमारे जैसे यहीं शहर में जीते-जीते जिन्दगी गुजार दे रहे हैं।

    संजीव, बहुत प्रशंसा के पात्र लग रहे हैं आप मुझे!

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  6. आपने बाढ का एक सजीव चित्र खीचा है संजीव जी बाढ के बाद का ब्योरा पढकर झुरझुरी हो आयी ,जो झेलते है उनका क्या? ईश्वर कोसी के पिडीतो को शांती और आत्मबल प्रदान करे॥

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  7. Sanjeev Ji..., Vaki satik chitran kiya hai aapne. Shivnath nadi ke kinare mera bhi gao.n hai. Hum log to bahut saubhagyashali hai jo Shivnath ki kripa hum par bani hui hai.

    Aditya Shukla
    (kaviaditya.blogspot.com

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8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

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दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म