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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान

- महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें -
सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान

प्रो. अश्विनी केशरवानी

खरौद, चित्रोत्पला-गंगा महानदी के किनारे जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ६५ कि.मी., दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से ७० कि.मी., बिलासपुर जिला मुख्यालय से ६४ कि.मी., कोरबा जिला मुख्यालय से ११० कि.मी., छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से १२० कि.मी.(व्हाया बलौदाबाजार) तथा संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र ३ कि.मी. की दूरी पर बसा एक धार्मिक नगर है। यह २१.७५ डिग्री उत्तरी अक्षांश और ८०.५० डिग्री पूर्वी देशांश पर स्थित पत्रि और मोक्षदायी लगर है। कदाचित् इसी कारण इस नगर को ''छत्तीसगढ़ की काशी'' कहा जाता है। यह नगर प्राचीन छत्तीसगढ़ के पांच ललित कला केंद्रों में से एक हैं। अन्य ललित कला केंद्रों में सिरपुर, राजिम, मल्हार और ताला प्रमुख हैं। शैव परम्परा यहां स्थित लक्ष्मणेश्वर शिवलिंग से स्पष्ट परिलक्षित होता है। यहां स्थित गिरी गोस्वामियों का शैव मठ भी इसी का द्योतक है। शायद यही कारण है कि खरौद को शिवाकांक्षी कहा जाता है। इसकी तुलना उड़ीसा के भुवनेश्वर के लिंगराज से की जाती है। प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का रास्ता भी खरौद और शिवरीनारायण से होकर जाता था।


विद्वानों ने प्रागैतिहासिक काल के जो तथ्य प्रस्तुत किये हें उनमें शिव लिंग की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है और इसकी स्थापना के लिए किसी पर्वतादिक स्थानों को चुना गया। ऐसे स्थलों में पाषाण खंड या चमत्कारपूर्ण दृश्य के कारण उसमें ईश्वर की सत्ता मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाने लगी। खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में स्थित 'लक्ष्य लिंग' भी इसी प्रकार के उन्नत भूभाग में स्थित एक मोक्षदायी लिंग है। सावन मास में कांवरियों की और महाशिवरात्री में दर्शनार्थियों की यहां अपार भीड़ होती है। प्राचीन कवि बटुक सिंह चौहान ने इसकी महिमा इस प्रकार गायी है :-

जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।
लखनेश्वर दर्शन करि,कंचन होत शरीर।।
सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।

उत्‍तम किस्म के फर्शी पत्थर को अपने गर्भ में समेटे खरौद का प्राचीन इतिहास शैव धर्म के वैशिष्ट्य को प्रदर्शित करता है। सामान्यतया छत्तीसगढ़ में शैव धर्म की प्राचीनता उसे प्रागैतिहासिक काल में ले जाती है। आज भी यहां शिव के पुरूष विग्रह की पूजा दूल्हादेव के रूप में करते हैं। प्रदेश के कई क्षेत्रों में उसे बाबा या बड़ादेव भी कहते हैं। शिव के साथ शक्ति या ग्राम देवी के रूप में छत्तीसगढ़ के गांवों में इसके संहारक रूप की पूजा कंकालिन देवी, बंजारी देवी आदि के रूप में आज भी की जाती है।

नगर के सभी प्रवेश मार्गों पर तालाब एवं भव्य मंदिरों का दर्शन सुलभ है। इसके चारों ओर प्राचीन दुर्ग और खाइयों के अवशेष आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तव में यह ''मृत्तिकागढ़'' के अवशेष है जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत मात्रा में देखने को मिलता है। पश्चिम दिशा में भगवान लक्ष्मणेश्वर के डमरू का निनाद, पूर्व दिशा में शीतला माता का आधिपत्य, उत्तर दिशा में राम सागर, डघेरा ( देवधरा ) तालाब एवं राम भक्त हनुमान की कीर्ति पताका, दक्षिण दिशा में हरशंकर तालाब और शबरी देवी का कलात्मक मंदिर आगन्तुकों का स्वागत करता है। नगर के मध्य में इंदलदेव का कलात्मक मंदिर, शुकुलपारा में साधु-संतों का मठ और तिवारीपारा में कंकालिन देवी का दुलार अपनी विशेषताओं से युक्त है।
प्राचीन काल में यह क्षेत्र दंडकारण्य कहलाता था। दंडकारण्य में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी ने कई व्यतीत किये। इसी क्षेत्र से सीता का हरण हुआ था। श्रीराम और लक्ष्मण ने सीता की खोज के दौरान शबरी भीलनी के आश्रम में आकर उसके जूठे बेर खाये थें इसी प्रसंग को लेकर इस स्थान को शबरी-नारायण कहा गया। कालान्तर में यह बिगड़कर शिवरीनारायण कहलाने लगा। खरौद नगर के दक्षिण प्रवेश द्वार पर स्थित शौरि मंडप शबरी का ही मंदिर है। इस मंदिर में श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्ति है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में खरदूषण का राज था, जो श्रीराम के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ था। कदाचित् उन्हीं के नाम पर यह नगर खरौद कहलाया। यहां के लक्ष्मणेश्वर लिंग को भी लक्ष्मण के द्वारा स्थापित माना जाता है। इस सम्बंध में एक किंवदंती प्रचलित है, जिसके अनुसार रावण वध के पश्चात् राम और लक्ष्मण के उपर ब्रह्म हत्या का आरोप लगाया गया था। ऋषियों द्वारा श्रीराम को रावण वध के पूर्व रामेश्वर लिंग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करने के कारण ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त रखा गया। इसी के बाद लक्ष्मण शिवाभिषेक के लिए चारों दिशाओं में स्थित तीर्थ स्थलों-उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिकाधाम और मध्य में गुप्ततीर्थ शिवरीनारायण से पवित्र जल एकत्रित करके अयोध्या को लौट रहे थे, तभी खरौद क्षेत्र में उन्हें क्षय रोग हो गया और उनकी नाक से रक्त बहने लगा। इससे मुक्ति पाने के लिए उन्हें यहां पर महादेव जी की तपस्या करनी पड़ी। तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी उन्हें लक्ष्यलिंग के रूप में दर्शन देकर पार्थिव पूजन का आदेश दिया। इस पूजन से उन्हें इस क्षय रोग से मुक्ति ही नहीं मिली बल्कि वहीं वे ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्त हो गये। आज भी लक्ष्मणेश्वर दर्शन के सम्बंध में ''क्षय रोग निवारणाय लक्ष्मणेश्वर दर्शनम्'' की उक्ति प्रसिद्ध है। इस प्रकार यहां का लक्ष्यलिंग लक्ष्मण के नाम पर लक्ष्मणेश्वर प्रसिद्ध हुआ। आंचलिक कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल के शब्दों में

लाख लिंगधर लखलेश्वर शंकर शिव औघड़ दानी।
निकले भू से शंभू हर हर महादेव वरदानी।।


डॉ. नन्हेप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'खरौद परिचय' में यहां के मंदिरों का सजीव चित्रण किया है। वे लिखते हैं :-'मंदिर तो भारतीय संस्कृतिके बोलते चित्र हैं। भारतीय धर्मशास्त्र में इसका महत्व ठीक उसी प्रकार है जैसे भोजन में लवण। इस देश में विभिनन विचार धाराओं ने जन्म लियाा। उन सबका पृथक पृथक और सम्मिलित रूप इन मंदिरों में देखा जा सकता है। भारतीय धर्म, कला और संस्कृति का अद्भूत समन्वय देखना हो तो यहां के किसी मंदिर में चले जाइये। मंदिरों ने इस देश में आने वाली अनेक जातियों को प्रभावित किया है। अरण्य स्थित वानप्रस्थ संस्कृति के द्वारा उपेक्षित इस देश के ज्ञान विज्ञान इन मंदिरों में शरण पाये हें। भारत में आत्म शांति के लिए मंदिरों का उपयोग सदियों से होता रहा है।' उन्होंने खरौद नामकरण के बारे में भी लिखा है- 'खड्गदेव शब्द में ''खड्ग'' का अपभ्रंश ''खरग'' तथा ''देव'' शब्द का अपभ्रंश 'औद' या ओद बना प्रतीत होता है। 'ग' वर्ण के लोप हो जाने तथा 'खर' और 'औद' के मिलने से ''खरौद'' शब्द की सिद्धि होती है। इस प्रकार इस ग्राम (अब नगर) का खरौद नाम खड्गदेव शब्द का बिगड़ा रूप हो सकता है।'

यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर ११० फीट लंबा और ४८ फीट चौड़ा चबूतरा है जिसके उपर ४८ फीट ऊंचा और ३० फीट गोलाई लिए मंदिर स्थित है। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के उपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। पहले मंदिर का सभा मंडप के सामने के भाग में एक गड्ढा था जिसे पुजारियों ने मिट्टी डलवाकर उसमें सत्यनारायण मंडप, नंदी मंडप और भोगशाला का निर्माण करवा दिया था। इसी के एक भाग में मिश्र परिवार द्वारा श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण कराया गया है।

मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप मिलता है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। दक्षिण भाग का शिलालेख की भाषा अस्पष्ट है अत: इसे पढ़ा नहीं जा सकता। इस लेख का अनुवाद पूर्व में किया जा चुका है उसके अनुसार इस लेख में आठवी शताब्दी के इंद्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है। डॉ. सुधाकर पाण्डेय ने इस शिलालेख को छठवी शताब्दी का माना है। इसी प्रकार मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चंद्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ। इसके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है। तद्नुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियां थी। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक पुत्र हुआ। पद्मा से सिंहतुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।


मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ है। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दृसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरूष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगाऱ्यमुना की मूर्ति स्थित है। मूर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देता है। उनके पार्श्व में दो नारी प्रतिमा है। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मुर्ति है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ राव द्वारा लिखित ''आक्नोग्राफी ऑफ इंडिया'' तथा आर. आर. मजुमदार की ''प्राचीन भारत'' में इस दृश्य का चित्रण मिलता है। मान्यता है कि मंदिर के गर्भगृह में श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के द्वारा स्थापित लक्ष्यलिंग स्थित है। इसे लखेश्वर महादेव भी कहा जाता है क्योंकि इसमें एक लाख लिंग है। इसमें एक पातालगामी लक्ष्य छिद्र है जिसमें जितना भी जल डाला जाय वह उसमें समाहित हो जाता है। इस लक्ष्य छिद्र के बारे में कहा जाता है कि मंदिर के बाहर स्थित कुंड से इसका सम्बंध है। इन छिद्रों में एक ऐसा छिद्र भी है जिसमें सदैव जल भरा रहता है। इसे ''अक्षय कुंड'' कहते हैं। स्वयंभू लक्ष्यलिंग के आस पास वर्तुल योन्याकार जलहरी बनी है। मंदिर के बाहर परिक्रमा में राजा खड्गदेव और उनकी रानी हाथ जोड़े स्थित हैं। प्रति वर्ष यहां महाशिवरात्री में मेला लगता है। कदाचित् इसी कारण इस लगर को ''काशी'' के समान मान्यता है।

पंडित मालिकराम भोगहा कृत ''श्री शबरीनारायण माहात्म्य'' के पांचवें अध्याय के ९५-९६ श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं :- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी। रावण को मारने के लिये हम अनेक प्रयोग किये। यह एक शेष है कि इहां ''लक्ष्मणेश्वर महादेव'' थापना आप अपने हाथ कर देते तो उत्‍तम होता –

रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ
वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।
वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।
सो अब इहां थापि लखनेश्वर करें जाइ वध दुश्ट अधम।।

यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े २ मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की थापना की :-

यह सुनि रामचंद्रजी बड़े २ मुनि लिये बुलाय।
लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। ९७ ।।

....और अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।
पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।

अर्थात एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किये, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं।
आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल अपनी पुस्तक ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में इस मंदिर की महिमा का बखान किया है:-

सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।
लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये।।
एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।
दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।


इसी प्रकार नगर के प्रवेश द्वार पर संस्कृति प्रचार केंद्र में विक्रम संवत् २०४२, ज्येष्ठ शुक्ल १० गंगा दशहरा के पावन पर्व के दिन शिव के आठ तत्वों के समिष्ट रूप ''अष्टमुख शिव'' की प्रतिमा की स्थापना की गई है। भारत में मंदसौर के बाद खरौद में स्थापित यह प्रतिमा अद्वितीय, अनुपम और दर्शनीय है। नगर के दक्षिण प्रवेश द्वार पर ही अति प्राचीन शबरी मंदिर के द्वार पर उपेक्षित अर्द्धनारीश्वर की सुन्दर मूर्ति रखी है। मूर्ति बीच से टूट गयी है और चेहरे पर सिंदूर पोत देने से मूर्ति की पहचान करने में कष्ट होता है। दर्शनार्थियों के द्वारा मूर्ति में पानी चढ़ाने से क्षरण होते जा रहा है। ऐसे ही एक अति प्राचीन इंदलदेव का मंदिर नगर के मध्य माझापारा में प्राचीन गढ़ी से लगा स्थित है। ईंट शैली में पश्चिमाभिमामुख इस मंदिर की द्वार में गंगा यमुना और ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है। लेकिन गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है।

अन्यान्य दुर्लभ मूर्तियों से युक्त मंदिरों, तालाबों, प्राचीन गढ़ी के अलावा धार्मिकता और ऐतिहासिक महत्ता के बावजूद यह नगर उपेक्षित है। महाशिवरात्री में यहां अवश्य दर्शनार्थियों की भीड़ होती है।
प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी
'राघव' डागा कालोनी,
चाम्पा-४९५६७१ (छ.ग.)

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