क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है? सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

7. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया

प्रस्तावना यहाँ पढे

इस सप्ताह का विषय

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

पलाश (परसा, ढाक, टेसू या किंशुक) को हम सभी जानते है। इसके आकर्षक फूलो के कारण इसे जंगल की आग भी कहा जाता है। प्राचीन काल ही से होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है। अब पलाश के वृक्षो मे पुष्पन आरम्भ हो रहा है। देश भर मे इसे जाना जाता है। लाल फूलो वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। पहले मै एक ही प्रकार के पलाश से परिचित था। बाद मे वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान मुझे लता पलाश देखने और उसके गुणो को जानने का अवसर मिला। लता पलाश भी दो प्रकार का होता है। एक तो लाल पुष्पो वाला और दूसरा सफेद पुष्पो वाला। सफेद पुष्पो वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दस्तावेजो मे दोनो ही प्रकार के लता पलाश का वर्णन मिलता है। सफेद फूलो वाले लता पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा है जबकि लाल फूलो वाले को ब्यूटिया सुपरबा कहा जाता है।

मुझे सबसे पहले पीले पलाश के विषय मे छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको से पता चला। ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सको ने अपने पूरे जीवन मे कुछ ही पेड देखे थे। मुझे नागपुर यात्रा के दौरान वर्धा सडक मार्ग पर इसे देखने का सौभाग्य मिला। वहाँ लोगो ने बताया कि हाल ही मे किसी तांत्रिक ने पूरे पेड की कीमत लाखो मे लगायी और जड सहित इसे उखाडा गया। तब मुझे इसके तंत्र सम्बन्धी महत्व के बारे मे पता चला। मैने वैज्ञानिक दस्तावेजो को खंगाला पर कुछ खास नही मिला। मैने अपने अनुभवो को शोध आलेखो के रुप मे प्रकाशित किया।

इन शोध आलेखो का जब मैने हिन्दी मे अनुवाद कर कृषि पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित करना आरम्भ किया तो देश भर से पत्र आने लगे। पंजाब से आये एक विस्तृत पत्र मे दावा किया गया था कि पीले पलाश से सोना बनाया जा सकता है। बाद मे मुझे फोन पर बताया गया कि यह जानकारी प्राचीन भारतीय साहित्यो मे लिखी है। उन्होने इसकी फोटोकापी भी भेजी। इसे पढकर लगा कि यह जानकारी आधी-अधूरी है। बाद मे जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की तो उन्होने बताया कि इससे सोना बनने की बात ने ही इस दुर्लभ वृक्ष के लिये खतरा पैदा कर दिया है। लोग वनो मे इसे खोजने जी-जान लगा दे रहे है। चूँकि पुष्पन के समय ही इसकी पहचान होती है इसलिये इस समय बडी मारामारी होती है।

पारम्परिक चिकित्सा मे पीले पलाश का प्रयोग बहुत सी जटिल बीमारियो के उपचार मे होता है। पारम्परिक चिकित्सक आम पलाश के औषधीय गुणो को बढाने के लिये इसका प्रयोग करते है। वे सोने से अधिक अपने रोगियो की जान की परवाह करते है। यही कारण है कि पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही वे इन्हे दिखाते है। अधिक्तर वृक्ष घने जंगलो मे है। मुझे लगता है कि इनकी चिंता जायज है। पीले पलाश से सोना बनता है या नही इसके लिये प्राचीन साहित्यो मे वर्णित जानकारियो के आधार पर आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग कर सकते है। पहले तो यह जरुरी है कि जो लिखा गया है उसका सही अर्थ समझा जाय। हो सकता है कि किसी दूसरे सन्दर्भ मे सोने की बात कही गयी हो। पहले भी कई प्रकार की वनस्पतियो पर ऐसी ही गलत जानकारियो के कारण संकट आते रहे है। पीले पलाश की वैज्ञानिक पहचान स्थापित की जाये। और यदि पारम्परिक चिकित्सक चाहे तो इनकी रक्षा मे उनकी मदद की जाये। तंत्र से जुडे लोगो के लिये टिशू कल्चर तकनीक की सहायता से पुराने वृक्षो से नये असंख्य पौधे तैयार करने शोध हो ताकि इन्हे बचाते हुये माँग की पूर्ती की जा सके। पीढीयो से पीले पलाश के विषय मे चर्चा है। इसका सत्य जानने के लिये अब और देर करने की जरुरत नही है।

अगले सप्ताह का विषय

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

टिप्पणियाँ

  1. जैसे फार्मास्युटिकल क्म्पनियां अपने और स्टॉक होल्डर्स के लिये आरोग्य की दवाओं से सोना बना रही हैं, वैसे यह पलाश भी बनाता है।
    आवश्यकता सीधे अर्थ पर नहीं लक्षण वाले अर्थ पर जाने की है! :-)

    जवाब देंहटाएं
  2. अपन को ये जानकारी थी ही नई, अपन सिर्फ़ पलाश से रंग तैयार किए जाने को जानते रहे हैं

    जवाब देंहटाएं
  3. हमने भी अपने अभी तक के जीवन काल में पीले पलास को नहीं देखा किन्तु पूर्व में संभवत: आपके लिखने के बाद संपर्कों से पता चला था । आपकी चिंता जायज है इसका संरक्षण व संर्वधन होना चाहिए ताकि पारंपरिक चिकितसा में इसका व्यापक प्रयोग संभव हो सके । धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  4. मैं भाई संजीव जी के विचारो से सहमत हूँ इसका जनहित मे संवर्धन और सरक्षण किया जाना चाहिए . बहुत बढ़िया जानकारी देने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. पलास एक अद्भुत पेड़ है इसका रछा होना चाहिए

    जवाब देंहटाएं
  7. हमारे गाव से 180 की मी पे सफेद पलश का पेड है हार फेब और मार्च मे जा के इसके फुल लाता हू ।। और जुलै मे ईसके बीज भी आते है । मुझे ज्यादा कूच पता नाही है कृपया जाणकारी दे


    अनिल
    Anil.7me@gmail.com 7020383338

    जवाब देंहटाएं
  8. हमारे गाव से 180कमी के दुरी पे सफेद पलश का पेड है 2 साल से मै वहा जा के फेब मार्च मे उसके फुल लाता हू और जुन मे उसके बीज ।। इसका उपयोग मुझे नाही पता ।।। कोई बताये anil.7me@gmail.com
    7020383338

    जवाब देंहटाएं
  9. KRIPAYA SAFED EVAM NEEL PALASH KE VISHAY ME JANKARI DEN. AGAR SAMBHAV HO TO PHOTOGRAPHS BHI.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म