विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
परम्परा और नवीनता का संगम : नाचा 1
कारी : रामहृदय तिवारी के निर्देशन में प्रस्तुत कारी इस श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है । प्रारंभ में परम्परागत छत्तीसगढी परिवार के रूप में विशेसर और कारी के सुखी दाम्पत्य जीवन की सुन्दर झांकी है । संतान विहीन दम्पत्ति की मानसिक पीडा, हास्य, परिहास का मनोहारी पुट, ग्रामीण जीवन में रामलीला या अन्य आयोजनों का महत्व, सभी कुछ लोकनाटय के अनुरूप है । पत्नी (कारी) के चरित्र पर आरोप लगने पर बिशेसर का विरोघ तथा अपने घरेलु जीवन में खुलापन सब कुछ छत्तीसगढ की संस्कृति के अनुरूप है । विशेसर की मृत्यु के पश्चातृ नाटक में आया मोड सर्वथा नवीन है । छत्तीसगढ अंचल में पति की मृत्यु के बाद छत्तीसगढी युवती का चूडी पहनकर दूसरा विवाह कर लेना सामान्य बात है । इसके विपरीत कारी का अपने सास और देवर के लिये त्याग सर्वथा नवीन प्रयोग है । अपने बच्चे की तरह देवर का पालन पोषण करने वाली कारी का गांव के अध्यापक मास्टर भैयया से न केवल मेलजोल वरन् पारिवारिक संबंध भी लोकापवाद की श्रेणी में आता है । यद्यपि ग्रामीण जीवन में एक बाहरी अध्यापक किसी विधवा युवती के साथ इतनी आत्मीयता प्रदर्शित नहीं करता परन्तु कारी के उच्च नैतिक चरित्र एवं पारिवारिक जीवन में इसे संभव बनाकर दिखाया गया है । ऐसा आदर्श इस परम्परागत समाज में एक अभिनव प्रयोग ही कहा जाएगा ।
वृद्धावस्था की कारी का देवरानी के सुखी पारिवारिक जीवन के लिये एकाकी जीवन यापन का निर्णय उसे और उंचाई तक पहुंचा देता है । कुल मिलाकर परंपरा और नवीनता का एक संगम दिखलाई पडता है ।
हरेली : हरेली में प्रकृति और मनुष्य का संबंध बहुत खूबसूरती के साथ दिखाया गया है । लक्ष्मण चंद्राकर की प्रस्तुति हरेली को भी लोगों ने खूब सराहा है । इसका नायक कंठी ठेठवार अपनी जाति के पारम्परिक व्यवसाय पशुपालन पर आसन्न संकट को दूर करने के लिए अपने प्राणों की भी बलि दे देता है । कहते हुए पेडों से चारागाह बस्ती से दूर होते चले जा रहे थे । इसके लिए जब उसने राजा बिंझवार का विरोध किया तो वह लडाई में मारा गया । परम्परागत रूढियों के अनुसार कंठी ठेठवार के प्राण उसके आंगन के एक पेड में बसते थे । इसलिए राजा ने छल से उस पेड को कटवा दिया था । कंठी ठेठवार की पत्नी जब अपने लडके को यह पूरी कहानी बताती है तो साथ में यह भी कहती है कि राज परिवार के किसी सदस्य के खून से सिंचित होने के बाद ही वह ठूंठ पुन: हरा हो जाएगा । अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए कंठी ठेठवार का लडका बिंझवार के राज्य में जाता है । राजा की राजा की लडकी संवरी जो उसकी प्रेयसी होती है और बाद में पत्नी बन जाती है । इसलिए उसका लडका जो राजा के यहां प्रतिशोध की भावना से गया था, परन्तु राजा की लडकी जो उसकी पत्नी बनती है उसे अत्यधिक प्यार करने के बाद भी ठूंठ को हरा करने के लिए, वह अपनी पत्नी की बलि देता है । इस प्रकार इस कथा में परम्परागत रूढियों एवं प्रेम प्रसंग होते हुए भी वृक्षारोपण तथ पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश है । यह प्रकृति प्रेम भले ही प्राचीन हो पर आज की आवश्यकता के अनुरूप उसे नये कलेवर में प्रस्तुत किया गया है ।
क्रमश: .... आगामी अंक में हबीब तनवीर के निर्देशन में प्रस्तुत हिरमा की अमर कहानी एवं गम्ममिहा
परम्परा और नवीनता का संगम : नाचा 3
डॉ. महावीर अग्रवाल से साभार
कारी : रामहृदय तिवारी के निर्देशन में प्रस्तुत कारी इस श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है । प्रारंभ में परम्परागत छत्तीसगढी परिवार के रूप में विशेसर और कारी के सुखी दाम्पत्य जीवन की सुन्दर झांकी है । संतान विहीन दम्पत्ति की मानसिक पीडा, हास्य, परिहास का मनोहारी पुट, ग्रामीण जीवन में रामलीला या अन्य आयोजनों का महत्व, सभी कुछ लोकनाटय के अनुरूप है । पत्नी (कारी) के चरित्र पर आरोप लगने पर बिशेसर का विरोघ तथा अपने घरेलु जीवन में खुलापन सब कुछ छत्तीसगढ की संस्कृति के अनुरूप है । विशेसर की मृत्यु के पश्चातृ नाटक में आया मोड सर्वथा नवीन है । छत्तीसगढ अंचल में पति की मृत्यु के बाद छत्तीसगढी युवती का चूडी पहनकर दूसरा विवाह कर लेना सामान्य बात है । इसके विपरीत कारी का अपने सास और देवर के लिये त्याग सर्वथा नवीन प्रयोग है । अपने बच्चे की तरह देवर का पालन पोषण करने वाली कारी का गांव के अध्यापक मास्टर भैयया से न केवल मेलजोल वरन् पारिवारिक संबंध भी लोकापवाद की श्रेणी में आता है । यद्यपि ग्रामीण जीवन में एक बाहरी अध्यापक किसी विधवा युवती के साथ इतनी आत्मीयता प्रदर्शित नहीं करता परन्तु कारी के उच्च नैतिक चरित्र एवं पारिवारिक जीवन में इसे संभव बनाकर दिखाया गया है । ऐसा आदर्श इस परम्परागत समाज में एक अभिनव प्रयोग ही कहा जाएगा ।
वृद्धावस्था की कारी का देवरानी के सुखी पारिवारिक जीवन के लिये एकाकी जीवन यापन का निर्णय उसे और उंचाई तक पहुंचा देता है । कुल मिलाकर परंपरा और नवीनता का एक संगम दिखलाई पडता है ।
हरेली : हरेली में प्रकृति और मनुष्य का संबंध बहुत खूबसूरती के साथ दिखाया गया है । लक्ष्मण चंद्राकर की प्रस्तुति हरेली को भी लोगों ने खूब सराहा है । इसका नायक कंठी ठेठवार अपनी जाति के पारम्परिक व्यवसाय पशुपालन पर आसन्न संकट को दूर करने के लिए अपने प्राणों की भी बलि दे देता है । कहते हुए पेडों से चारागाह बस्ती से दूर होते चले जा रहे थे । इसके लिए जब उसने राजा बिंझवार का विरोध किया तो वह लडाई में मारा गया । परम्परागत रूढियों के अनुसार कंठी ठेठवार के प्राण उसके आंगन के एक पेड में बसते थे । इसलिए राजा ने छल से उस पेड को कटवा दिया था । कंठी ठेठवार की पत्नी जब अपने लडके को यह पूरी कहानी बताती है तो साथ में यह भी कहती है कि राज परिवार के किसी सदस्य के खून से सिंचित होने के बाद ही वह ठूंठ पुन: हरा हो जाएगा । अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए कंठी ठेठवार का लडका बिंझवार के राज्य में जाता है । राजा की राजा की लडकी संवरी जो उसकी प्रेयसी होती है और बाद में पत्नी बन जाती है । इसलिए उसका लडका जो राजा के यहां प्रतिशोध की भावना से गया था, परन्तु राजा की लडकी जो उसकी पत्नी बनती है उसे अत्यधिक प्यार करने के बाद भी ठूंठ को हरा करने के लिए, वह अपनी पत्नी की बलि देता है । इस प्रकार इस कथा में परम्परागत रूढियों एवं प्रेम प्रसंग होते हुए भी वृक्षारोपण तथ पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश है । यह प्रकृति प्रेम भले ही प्राचीन हो पर आज की आवश्यकता के अनुरूप उसे नये कलेवर में प्रस्तुत किया गया है ।
क्रमश: .... आगामी अंक में हबीब तनवीर के निर्देशन में प्रस्तुत हिरमा की अमर कहानी एवं गम्ममिहा
परम्परा और नवीनता का संगम : नाचा 3
डॉ. महावीर अग्रवाल से साभार
बिल्कुल अनोखी जानकारियो से परिचय हो रहा है। आपकी प्रस्तुति इस ब्लाग को कालजयी बना रही है। शुभकामनाए।
जवाब देंहटाएंपंकज जी बिलकुल सही कह रहें हैं।
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