विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
उस रात लगभग 11 बजे मेरे एक मित्र का फोन मेरे मोबाईल सेट पर घनघना उठा । मैं अपने मोबाईल को बैठक के टेबल में रखकर दूसरे कमरे में हिन्दी ब्लागों को पढने में मगन था । मोबाईल का वाईब्रेशन पुन: सक्रिय हो गया, इस समय मेरे पुत्र का ध्यान उस ओर गया, स्वाभविक रूप से उसने मोबाईल उठा कर देखा और फोन कर रहे मित्र का नाम बताते हुए वहीं से आवाज दिया ' फलां का फोन है ' मोबाईल वाईब्रेट होता रहा । मन तो कह रहा था लपक लूं मोबाईल और बात करूं, आखिर मित्र का फोन था । पर किसी पूर्वनिर्धारित साफ्टवेयर आदेश की तरह मेरे शरीर के हार्डवेयर नें उसे पालन करते हुए मोबाईल नहीं उठाया और वाईब्रेटर हार थक के बंद हो गया ।
सुबह मैं अपने कार्यालय पहुंचकर उस मित्र को फोन किया, उसे किसी लेख के संबंध में कुछ आवश्यक सहयोग चाहिए था । उसके अनमनेपन को मैं भांप गया, मैंनें झेंपते हुए अपना पक्ष रखा, उसने भावुक होकर कुछ सुझाव दिये ।
चिंतन की शुरूआत इसके बाद ही हुई । मैं 80 व 90 के दसकों में हिन्दी लेखन से कुछ कुछ जुडा हुआ था । 1995 तक स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में यदा कदा मेरी रचनायें प्रकाशित होती रही है । 1995 में मेरे विवाह के बाद मैंने अपने कलम को विराम दे दिया था ।
इससे संबंधित मेरे द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में मेरी पत्नी ने बताया था कि उसे कविता, कहानी व लेख लिखने वाले कतई पसंद नहीं हैं इसका कारण यह है कि ये लोग हकीकत की धरातल में रह कर नहीं लिखते काल्पनिक भावनाओं में डूबते उतराते रहते हैं और ना ही इससे पेट भरता है और ना ही घर चलता है । उसके दूसरे दलील में दम था अत: हमने ज्ञानदत्त जी के परसुराम वाले पोस्ट की तरह समझौता कर लिया था एवं लेखन को बंद कर दिये थे क्योंकि तब हमारे उपर परिवार की शुरूआती आर्थिक जिम्मेदारी थी एवं वेतन न्यूनतम था, तो हमने अपना कलम अपने संस्था के व्यावसायिक साख को बढाने में ही लगाया और सेवा कार्य में अपना संपूर्ण समय तन्मयता से लगाया ।
पिछले वर्षों से हमारे कानूनी दांव पेंचों एवं बहसों के सहारे पत्नी महोदया नें ब्लाग लिखने की टेंम्परेरी आर्डर पास कर दिया था, सो हम आप लोगों को छत्तीसगढ से परिचित कराने में लगे थे । पर आज भी उसके मन में लेखन से जुडे व्यक्तियों के प्रति आदर के भाव को मैं स्थापित नहीं कर पाया हूं, उसे प्रत्येक लेखन धर्मी से कोई विशेष श्रद्धा नहीं है । यही वह कारण है कि वह किसी ब्लाग लेखन के क्षेत्र से जुडे व्यक्ति के साथ लम्बी वार्ता मुझे करते देखने पर विचलित हो जाती है । मैं परिवार में विचलित मानसिकता को पसंद नहीं करता ।
मित्र के सुझावों पर अमल करते हुए मैंने पत्नी को समझाया पर उसनें साफ शब्दों में कहा कि 'यह सब व्यावसायिक क्रियाकलाप है, लेखन यद्धपि स्वांत: सुखय कर रहे हों पर भविष्य में इससे किसी न किसी प्रकार से लाभ लेने की लालसा सभी के मन में है अत: व्यावसायिक बातें कार्यालयीन समय में ही हो, घर तक उसे ना लायें । व्यावसायिक मित्रता व शुभकामनायें, घर में शुभकामना संदेश पत्रों तक ही सीमित रखना मुझे पसंद है ।'
संबंधों में निरंतरता स्वमेव ही आदर या स्नेह के भाव को जगा देती है, जो मानव मन की सहज प्रवृत्ति है । श्रद्धा व प्रेम को दबावपूर्ण रूप से किसी के हृदय में उतारा नहीं जा सकता । जिस तरह से दस वर्षों के बाद मैनें अपनी पत्नी के मन में अपने लेखन प्रवृत्ति को स्वीकृत करवाया है वैसे ही मित्रों के लिए उसके मन में श्रद्धा को स्थापित होने में कुछ तो वक्त लगेगा ।
प्रारंभिक रहन सहन की अवस्थाओं का मनुष्य के मन में गहरा प्रभाव होता है, मेरी पत्नी छत्तीसगढ के एक बडे आबादी वाले भरे पूरे गांव से आई है । साल के 365 दिनों में से 300 दिन घर आये मेहमानों की खातिरदारी करने एवं बाकी के बचे 65 दिनो में हम पारिवारिक विवादों के तू तू मैं मैं में गुजार देते हैं । ऐसे में हिन्दी लेखन एवं आधुनिक परंपराओं से परिचित होने के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता । हां उसे पता रहता है कि फलां तारीख को फलां की पेशी है एवं फलां तारीख को फलां की बेटी की सगाई है और फलां फलां आने वाले हैं उनके लिए ये ये सामान लाना है, खाना बनाना है खिलाना है बस । और फलां के साथ शहर का लुफ्त उठाने के लिए मेहमानों की टीम मेरे घर एवं मेरी पत्नी के सेवा का आनंद उठाते हुए दो चार दिन ज्यादा सेवा का अवसर देकर हमें कृतार्थ करते रहते हैं, मेरी पत्नी कभी मायके तो कभी श्वसुराल से आये मेहमानों की सेवा करते हुए सुबह उठ कर ठाकुर जी के सामने अगरबत्ती जलाते हुए गाती है
ठाकुर इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाए ।।
तो इन साधुओं की भूख नें हमारी आर्थिक स्थिति के साथ ही पारिवारिक स्थिति को भी छिन्न भिन्न कर दिया है, गांव की महिलायें मेरे घर के मिठाईयों का स्वाद चखते हुए मेरी पत्नी को साहित्य पढने एवं आधुनिकताओं के दौड में बढने से रोकती हैं अत: हमारे ज्ञान बखान पर गोबर थोपा जाता है । हमारे विदेशी मेहमान गांव के दीवालों पर कंडा बनाने के लिए चिपकाये गये (थापे गए) गाय के गोबर को जिस प्रकार कूतूहल से देखते हैं कि गाय नें दीवाल में चढ कर कैसे गोबर किया होगा । वैसे ही कूतूहल बना रहता है कि मास्टर डिग्री तक पढी मेरी पत्नी क्या इतनी गैरआधुनिक हो सकती है कि मित्र से फोन पर हिन्दी लेखन के संबंध में लम्बे वार्तालाभ को सहज रूप से न स्वीकार कर पाये, पर यह सत्य है । यह आवश्यक नहीं है कि जिसके प्रति मेरे हृदय में सम्मान, प्रेम-स्नेह हो उसके प्रति किसी दूसरे के हृदय में भी वही भाव हो जो मेरे में है, यह एक नितांत निजी अनूभूति है ।
शिक्षा पर भारी पडती है पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियां । मेरी एक युवा भाभी ( अभी कुछ माह पूर्व ही उनका आकस्मिक निधन हो गया) भोपाल के एक कालेज में रसायन शास्त्र की विभागाध्यक्ष थी, भाई साहब राष्ट्रीयकृत बैंक के जोनल मैनेजर । नौकरी के पूर्व ही भाभी जी नें पी.एच.डी. कर लिया था तब छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश से अलग नहीं हुआ था और राजधानी भोपाल ही थी । रिश्तेदारों का काम से भोपाल आना जाना होता था और मेरा नेता जी की सेवा में विधायक विश्राम गृह में बसेरा होता था । रिश्तेदारों के आने पर भाभी जी से मिलने जब भी कालेज जाता था तो भाभी जी कालेज परिसर में जहां भी मिलती थी, कृषकाय बुजुर्ग रिश्तेदार के धूलधूसरित पैरों को, सिर में पल्लू ढांक कर, पारंपरिक रूप से झुककर चरण स्पर्श करती थी । उनका यह सहज व्यवहार जहां एक ओर कालेज में विद्यार्थियों के हंसी ठिठोली का कारण बनता था वहीं दूसरी ओर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा के भाव अंतस तक उमड पडते थे । तो यह भाव है उसके संसकार के जो शिक्षा एवं पद के बावजूद उसमें सहज रूप से विद्यमान थे ।
मुझे उनका सलवार या गाउन पहनने के लिए भाई साहब के प्रोत्साहन के बावजूद 'घर में बडे बुजुर्ग आते रहते हैं' की बात कहकर गाउन पहनने को जीवन भर टालते रहने की बात भी याद हो आती है जबकि आज महिलाओं के लिए यह आम बात है । यही वो प्रवृत्ति है जिसे आधुनिक समाज असहज भले कहता हो पर ग्रामीण नारी के मन से अंदर तक पैठे इन भावों को निकाल फेंकना सहज नहीं है । जिस प्रकार से रूढियों के प्रतिकूल आधुनिक अच्छे परंपराओं नें नारी शिक्षा को आत्मसाध करना सिखाया है वैसे ही अन्य परंपराओं की पैठ शैन: शैन: समाज में होगी । इसमें कुछ वक्त तो जरूर लगेगा और तब तक मेरा मोबाईल घर में बजता रहेगा ।
सुबह मैं अपने कार्यालय पहुंचकर उस मित्र को फोन किया, उसे किसी लेख के संबंध में कुछ आवश्यक सहयोग चाहिए था । उसके अनमनेपन को मैं भांप गया, मैंनें झेंपते हुए अपना पक्ष रखा, उसने भावुक होकर कुछ सुझाव दिये ।
चिंतन की शुरूआत इसके बाद ही हुई । मैं 80 व 90 के दसकों में हिन्दी लेखन से कुछ कुछ जुडा हुआ था । 1995 तक स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में यदा कदा मेरी रचनायें प्रकाशित होती रही है । 1995 में मेरे विवाह के बाद मैंने अपने कलम को विराम दे दिया था ।
इससे संबंधित मेरे द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में मेरी पत्नी ने बताया था कि उसे कविता, कहानी व लेख लिखने वाले कतई पसंद नहीं हैं इसका कारण यह है कि ये लोग हकीकत की धरातल में रह कर नहीं लिखते काल्पनिक भावनाओं में डूबते उतराते रहते हैं और ना ही इससे पेट भरता है और ना ही घर चलता है । उसके दूसरे दलील में दम था अत: हमने ज्ञानदत्त जी के परसुराम वाले पोस्ट की तरह समझौता कर लिया था एवं लेखन को बंद कर दिये थे क्योंकि तब हमारे उपर परिवार की शुरूआती आर्थिक जिम्मेदारी थी एवं वेतन न्यूनतम था, तो हमने अपना कलम अपने संस्था के व्यावसायिक साख को बढाने में ही लगाया और सेवा कार्य में अपना संपूर्ण समय तन्मयता से लगाया ।
पिछले वर्षों से हमारे कानूनी दांव पेंचों एवं बहसों के सहारे पत्नी महोदया नें ब्लाग लिखने की टेंम्परेरी आर्डर पास कर दिया था, सो हम आप लोगों को छत्तीसगढ से परिचित कराने में लगे थे । पर आज भी उसके मन में लेखन से जुडे व्यक्तियों के प्रति आदर के भाव को मैं स्थापित नहीं कर पाया हूं, उसे प्रत्येक लेखन धर्मी से कोई विशेष श्रद्धा नहीं है । यही वह कारण है कि वह किसी ब्लाग लेखन के क्षेत्र से जुडे व्यक्ति के साथ लम्बी वार्ता मुझे करते देखने पर विचलित हो जाती है । मैं परिवार में विचलित मानसिकता को पसंद नहीं करता ।
मित्र के सुझावों पर अमल करते हुए मैंने पत्नी को समझाया पर उसनें साफ शब्दों में कहा कि 'यह सब व्यावसायिक क्रियाकलाप है, लेखन यद्धपि स्वांत: सुखय कर रहे हों पर भविष्य में इससे किसी न किसी प्रकार से लाभ लेने की लालसा सभी के मन में है अत: व्यावसायिक बातें कार्यालयीन समय में ही हो, घर तक उसे ना लायें । व्यावसायिक मित्रता व शुभकामनायें, घर में शुभकामना संदेश पत्रों तक ही सीमित रखना मुझे पसंद है ।'
संबंधों में निरंतरता स्वमेव ही आदर या स्नेह के भाव को जगा देती है, जो मानव मन की सहज प्रवृत्ति है । श्रद्धा व प्रेम को दबावपूर्ण रूप से किसी के हृदय में उतारा नहीं जा सकता । जिस तरह से दस वर्षों के बाद मैनें अपनी पत्नी के मन में अपने लेखन प्रवृत्ति को स्वीकृत करवाया है वैसे ही मित्रों के लिए उसके मन में श्रद्धा को स्थापित होने में कुछ तो वक्त लगेगा ।
प्रारंभिक रहन सहन की अवस्थाओं का मनुष्य के मन में गहरा प्रभाव होता है, मेरी पत्नी छत्तीसगढ के एक बडे आबादी वाले भरे पूरे गांव से आई है । साल के 365 दिनों में से 300 दिन घर आये मेहमानों की खातिरदारी करने एवं बाकी के बचे 65 दिनो में हम पारिवारिक विवादों के तू तू मैं मैं में गुजार देते हैं । ऐसे में हिन्दी लेखन एवं आधुनिक परंपराओं से परिचित होने के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता । हां उसे पता रहता है कि फलां तारीख को फलां की पेशी है एवं फलां तारीख को फलां की बेटी की सगाई है और फलां फलां आने वाले हैं उनके लिए ये ये सामान लाना है, खाना बनाना है खिलाना है बस । और फलां के साथ शहर का लुफ्त उठाने के लिए मेहमानों की टीम मेरे घर एवं मेरी पत्नी के सेवा का आनंद उठाते हुए दो चार दिन ज्यादा सेवा का अवसर देकर हमें कृतार्थ करते रहते हैं, मेरी पत्नी कभी मायके तो कभी श्वसुराल से आये मेहमानों की सेवा करते हुए सुबह उठ कर ठाकुर जी के सामने अगरबत्ती जलाते हुए गाती है
ठाकुर इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाए ।।
तो इन साधुओं की भूख नें हमारी आर्थिक स्थिति के साथ ही पारिवारिक स्थिति को भी छिन्न भिन्न कर दिया है, गांव की महिलायें मेरे घर के मिठाईयों का स्वाद चखते हुए मेरी पत्नी को साहित्य पढने एवं आधुनिकताओं के दौड में बढने से रोकती हैं अत: हमारे ज्ञान बखान पर गोबर थोपा जाता है । हमारे विदेशी मेहमान गांव के दीवालों पर कंडा बनाने के लिए चिपकाये गये (थापे गए) गाय के गोबर को जिस प्रकार कूतूहल से देखते हैं कि गाय नें दीवाल में चढ कर कैसे गोबर किया होगा । वैसे ही कूतूहल बना रहता है कि मास्टर डिग्री तक पढी मेरी पत्नी क्या इतनी गैरआधुनिक हो सकती है कि मित्र से फोन पर हिन्दी लेखन के संबंध में लम्बे वार्तालाभ को सहज रूप से न स्वीकार कर पाये, पर यह सत्य है । यह आवश्यक नहीं है कि जिसके प्रति मेरे हृदय में सम्मान, प्रेम-स्नेह हो उसके प्रति किसी दूसरे के हृदय में भी वही भाव हो जो मेरे में है, यह एक नितांत निजी अनूभूति है ।
शिक्षा पर भारी पडती है पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियां । मेरी एक युवा भाभी ( अभी कुछ माह पूर्व ही उनका आकस्मिक निधन हो गया) भोपाल के एक कालेज में रसायन शास्त्र की विभागाध्यक्ष थी, भाई साहब राष्ट्रीयकृत बैंक के जोनल मैनेजर । नौकरी के पूर्व ही भाभी जी नें पी.एच.डी. कर लिया था तब छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश से अलग नहीं हुआ था और राजधानी भोपाल ही थी । रिश्तेदारों का काम से भोपाल आना जाना होता था और मेरा नेता जी की सेवा में विधायक विश्राम गृह में बसेरा होता था । रिश्तेदारों के आने पर भाभी जी से मिलने जब भी कालेज जाता था तो भाभी जी कालेज परिसर में जहां भी मिलती थी, कृषकाय बुजुर्ग रिश्तेदार के धूलधूसरित पैरों को, सिर में पल्लू ढांक कर, पारंपरिक रूप से झुककर चरण स्पर्श करती थी । उनका यह सहज व्यवहार जहां एक ओर कालेज में विद्यार्थियों के हंसी ठिठोली का कारण बनता था वहीं दूसरी ओर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा के भाव अंतस तक उमड पडते थे । तो यह भाव है उसके संसकार के जो शिक्षा एवं पद के बावजूद उसमें सहज रूप से विद्यमान थे ।
मुझे उनका सलवार या गाउन पहनने के लिए भाई साहब के प्रोत्साहन के बावजूद 'घर में बडे बुजुर्ग आते रहते हैं' की बात कहकर गाउन पहनने को जीवन भर टालते रहने की बात भी याद हो आती है जबकि आज महिलाओं के लिए यह आम बात है । यही वो प्रवृत्ति है जिसे आधुनिक समाज असहज भले कहता हो पर ग्रामीण नारी के मन से अंदर तक पैठे इन भावों को निकाल फेंकना सहज नहीं है । जिस प्रकार से रूढियों के प्रतिकूल आधुनिक अच्छे परंपराओं नें नारी शिक्षा को आत्मसाध करना सिखाया है वैसे ही अन्य परंपराओं की पैठ शैन: शैन: समाज में होगी । इसमें कुछ वक्त तो जरूर लगेगा और तब तक मेरा मोबाईल घर में बजता रहेगा ।
दिलचस्प जानकारी है। आराम से पढ़ूंगा।
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है।आज की युवा पीढ़ी को इन संस्कारों को समझने मे वक्त लगेगा। वैसे उम्मीद पर दुनिया कायम है।
जवाब देंहटाएंचेतावनी ग्रहण की गई!! अब तो मै आपके घर में रहने के टाईम में ब्लॉग के संबंध में फोन नई करूंगा!! बुआ से डांट नई खानी मुझे!!!
जवाब देंहटाएंवैसे ग्यारह बजे रात में किस ब्लॉग मित्र का फ़ुनवा आ गया था!!
लिखा बहुत बढ़िया है आपने!!
:))
जवाब देंहटाएंरात 11 बजे फोन करने का भी कोई समय है? मैं उस समय फोन को तभी उपयुक्त समझता हूं जब बहुत इमरजेंसी हो! जैसे कोई रेल दुर्घटना आदि।
जवाब देंहटाएंएक ही साँस में पूरा पढ़ गया, संजीव...अपने बारे में और तमाम बातों पर अपनी सोच जाहिर की. पढ़कर सचमुच बहुत अच्छा लगा. हम हमेशा अपने हिसाब से नहीं चल सकते, और इसे स्वीकार करने में कोई हर्ज ही नहीं.
जवाब देंहटाएंबहुत सहज भाव से की गई अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंपढ़कर एक इच्छा जागी कि छत्तीसगढ़ जाना चाहिए..
बस यही कहूंगा कि फिर भी लिखते रहिये क्योकि भावनाओ का अभिव्यक्त न होना भी कई प्रकार के रोगो की जड है। बाकी सब इग्नोर कर दे।
जवाब देंहटाएंaap ke lekhan mein sahaj abhivyakti hai jo mujh jaise naye likhane walon ke liye grahya hai!
जवाब देंहटाएंdhanyawad!
Manish Pandey
भई, पोस्ट में छिपी चेतावनी हमने भी ग्रहण कर ली।
जवाब देंहटाएंअब लम्बी वार्ता से बचने की कोशिश की जाएगी। :-)
वैसे सहज भाव से लिखी गई पोस्ट का भावार्थ पसंद आया। निश्चित ही, गहरे बैठे संस्कार संतुष्टि का कारक बनते हैं।
बी एस पाबला