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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

महाकोशल में हैहयवंश की उपस्थिति एवं सोमवंश का अंत

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में 2

त्रिपुरी के हैहयवंशी राजा के अट्ठारह पुत्र थे सभी वीर व शौर्यवान थे । इनके वंशज संपूर्ण भारत को अपनी वीरता से जीत लेने के लिए विभिन्‍न क्षेत्रों में अपने-अपने सामर्थ्‍य के अनुसार प्रयास करते रहे इन्‍हीं मे से शंकरण द्वितीय मुग्‍धतुंग, महाराज शिवगुप्‍त के पुत्र कोकल्‍ल प्रथम एवं रामायणकालीन राजा कीर्तिवीर्य सहत्रार्जुन का वंशज था ।

मुग्‍धतुंग नें कोसल के रत्‍नपुर में बारंबार आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्‍त कर लिया किन्‍तु सोमवंशी राजा जन्‍मेजय नें पुन: रत्‍नपुर को मुग्‍धतुंग से छीन लिया एवं सैन्‍य बल रत्‍नपुर में बढा दिया । यहीं से सोमवंशियों एवं कलचुरियों के बीच शत्रुता और संघर्ष बढता गया । सोमवंशी अपना राज्‍य बचाने के लिए एवं कलचुरी अपनी प्रतिष्‍ठा बढाने के लिए लडते रहे ।

इन्‍हीं दिनों मुग्‍धतुंग के पराजय और अपमान का बदला लेने का बीडा हैहयवंशी कुमार कलिंगराज नें उठाया । वह त्रिपुरी से अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर सोमवंशी सीमा रेखा को लांघते हुए कोसल के अंदर तक घुस आया और तुम्‍मान को अपना गढ बना लिया यहां कलिंगराज नें शक्ति संचय किया एवं भारी संख्‍या में नये सैनिकों की भर्ती कर उन्‍हें प्रशिक्षित भी किया ।

त्रिपुरी के अखण्‍ड राज्‍य से कलिंगराज को भरपूर सहायता प्राप्‍त हो ही रही थी । कलिंगराज नें पुन: पूर्ण जोश के साथ रत्‍नपुर में आक्रमण किया । घमासान युद्ध के बाद रत्‍नपुर के तत्‍कालीन सोमवंशी शासक का वध कर कलचुरी ध्‍वज को कलिंगराज नें रत्‍नपुर के किले में फहरा दिया ।

अब सोमवंश की आदि राजधानी श्रीपुर की ओर प्रस्‍थान का समय था, वीर कलिंगराज रत्‍नपुर से श्रीपुर की ओर बढ चला । विजय पथ पर पढने वाले कोसल के सभी राजाओं व गढपतियों नें सहर्ष कलचुरी अधीनता को स्‍वीकार किया ।

श्रीपुर में सोमवंशी राजा महाशिवगुप्‍त का पुत्र महाभवगुप्‍त प्रथम जन्‍मेजय उस काल में प्रतापी और वीर राजा था । तब संपूर्ण कोशल में सोमवंश की ही पताका फहराती थी और सोमवंशी तत्‍कालीन संस्‍कृति के लिए विश्‍वविख्‍यात राजधानी श्रीपुर में निवास करते थे । त्रिपुरी के कलचुरियों को रणभूमि में बार बार मात देने में जन्‍मेजय का कोई मुकाबला नहीं था । कलचुरियों का कोसल में राज करने के स्‍वप्‍न को उसने कई बार तोडा था, किन्‍तु निरंतर आक्रमण एवं भंज व नाग राजाओं के साथ नहीं देने की वजह से पहले ही रत्‍नपुर का राज्‍य छिन चुका था । फलत: जन्‍मेजय, कलिंगराज से संघर्ष में परास्‍त हो गया उसे सिहावा की ओर भागना पडा ।

कलचुरी नरेश कलिंगराज नें श्रीपुर में भी कब्‍जा कर लिया, अब कोसल क्षेत्र में उसके राज्‍य की सीमायें उत्‍तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्‍जैन तथा पूर्व में समुद्र तट तक फैल गया । इस प्रकार से कलचुरी भारत के मध्‍य तथा दक्षिण-पूर्व के एक विस्‍तृत भू-भाग के अधिपति बन राज्‍य करने लगे ।

कलिंगराज के संबंध में कहा जाता है कि उसे इस विजय के लिए ‘कौशलेन्‍द्र’ की पदवी से विभूषित किया गया था । उसका शौर्य प्रभाव इतना था कि कौशलेन्‍द्र की सेना के राज्‍य प्रवेश की सूचना मात्र से शत्रु राजा के प्राण सूख जाते थे ।

सोमवंशी प्रतापी किन्‍तु वृद्ध हो चले राजा जन्‍मेजय के श्रीपुर में परास्‍त होने के साथ ही सोमवंशियों का महाकोसल से समूल विनाश हो गया और हैहयवंशी कलचुरियों का एक-छत्र राज्‍य स्‍थापित हो गया ।

इस वंश के राजाओं में जाजल्‍लदेव जैसे प्रसिद्ध राजा हुए जिनके निर्माण व स्‍थापत्‍यकला से आज भी छत्‍तीसगढ की धरती फूली नहीं समाती और इनके इन स्‍थापत्‍य हस्‍ताक्षरों की चर्चा देश ही नहीं विदेशों में भी होती हैं । छत्‍तीसगढ के इतिहास को सामान्‍य भाषा में प्रस्‍तुत करने का हमारा यह क्रम जारी रहेगा ... ।

(छत्‍तीसगढ एवं कोशल के विभिन्‍न इतिहासविषयक लेखों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों व किताबों के आधार पर लिखित इस आलेख में विचार और शव्‍द मेरे हैं । इसे विवादों से परे एक कथानक के रूप में पढें, यही हमारा अनुरोध है )

संजीव तिवारी

इस आलेख में प्रयोग किए गए स्‍थान के नाम संबंधी परिचय -
त्रिपुरी – मध्‍यप्रदेश के जबलपुर के निकट स्थित इतिहासकालीन स्‍थल
तुम्‍मान – छत्‍तीसगढ के बिलासपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल
रत्‍नपुर - छत्‍तीसगढ के बिलासपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल जो वर्तमान में रतनपुर कहलाता है एवं जहां प्रसिद्ध महामाया मंदिर स्थित है ।
श्रीपुर - छत्‍तीसगढ के रायपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल जो वर्तमान में सिरपुर कहलाता है एवं जहां खुदाई में नालंदा से भी वृहद विश्‍वविद्यालय के अस्तित्‍व का पता चला है ।
हैहयवंशी – इसे कलचुरीवंश भी कहा जाता है ।
सोमवंश – कहीं कहीं इसे पाण्‍डुवंश के नाम से संबोधित किया जाता है ।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर और बहुत सशक्त पोस्ट। आपने नीचे स्थानों का परिचय दे कर पोस्ट को और संवार दिया है।

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  2. इतिहास मे पढ़ा था।आपने काफी सरल शब्दों मे लिखा है जिसकी वजह से पढ़ने मे भी आसान लगा।

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  3. आंकड़ों से परे इतिहास से परिचित कराने की यह शैली बहुत अच्छी है।

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  4. आपने रूचि जगा ही दी है तो हम अब पढ रहे है। पहले गुप्ता जी की पुस्तक पढी थी। सही मायने मे इस तरह की सरल जानकारी देने वाले साहित्य आम जनता के लिये कम ही है।

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  5. संजीव,

    भाई, छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक खंड के बारे में बहुत बढ़िया जानकारी दी. बहुत खूब रही ये पोस्ट.

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  6. मध्‍यप्रदेश के जबलपुर के निकट स्थित इतिहासकालीन त्रिपुरी स्‍थल मे त्रिपुरी राज्य के आज भी अवशेष पाए जाते है जिनमे कई मूर्तियाँ खंडित दशा मे है | इतिहास से संबंधित सुंदर लेख आपके द्वारा लिखा गया जिस हेतु आप सराहना के पात्र है | भविष्य मे भी आप महाकोशल/ छतीसगढ़ से संबंधित जानकारी प्रदान करते रहे | धन्यवाद

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