अशोक सिंघई : काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अशोक सिंघई : काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी


अशोक सिंघई : डॉ. परदेशीराम वर्मा

जनवरी 2007 से राजभाषा प्रमुख, भिलाई स्‍पात संयंत्रसाहित्‍यकार एवं कवि अशोक सिंघई के संबंध में वरिष्‍ठ कहानीकार डॉ. परदेशीराम वर्मा नें अपने पुस्‍तक ‘काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी’ में रोचक प्रसंगों का उल्‍लेख किया है आप भी पढे अशोक सिंघई जी का परिचय :-
काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी छत्‍तीसगढ के ख्‍यातिलब्‍ध व्‍यक्तियों के संबंध में डॉ. परदेशीराम वर्मा जी द्वारा लिखित 'अपने लोग' श्रृंखला की किताब


एक

वरिष्‍ठ प्रबंधक, जन संपर्क के कार्यालय में विज्ञापन आदि के लिए पत्रकारगण मिलते ही हैं । कुछ बडे लोग फोन पर भी अपनी बात कहते हैं । एक दिन संयोगवश मेरी उपस्थिति में ही किसी बडे पत्रकार का फोन आया । बातचीत कुछ इस तरह होने लगी ।
पत्रकार : मैं अमुक पत्र से बोल रहा हूँ । सिंघई जी : कहिए । पत्रकार : मिला नहीं । सिंघई जी : देखिए, अब जो स्थिति है उसमें हमें निर्देशों के अनुरूप सीमा के भीतर ही रहकर अपने कर्तव्‍यों का निर्वाह करना है । इस्‍पात उद्योग की हालत तो आप भी बेहतर जानते हैं । पत्रकार : यह तो सामान्‍य जवाब है । सिंघई जी कुछ उखडते हुए : देखिए, अशोक सिंघई स्‍वयं सामान्‍य हैं इसीलिए सबको सामान्‍य जवाब ही देता है । मुझे क्षमा करें । मैं किसी को विशेष तो किसी को सामान्‍य ऐसा दोहरे स्‍तरों पर जवाब नहीं देता ।
पत्रकार : मैं उपर बात करूँगा ।
सिंघई जी : बडे शौक से । आप बडे, उपर वाले बडे । यही शोभा देता है । मुझे तो क्षमा ही करें ।

दो

बख्‍शी सृजन पीठ के अध्‍यक्ष श्री प्रमोद वर्मा से भिलाई के जिन साहित्‍यकारों की पटरी नहीं बैठी उनमें से एक मैं भी हूँ । लेकिन अशोक सिंघई डाक्‍टर वर्मा के अनन्‍य भक्‍त । प्रमोद जी के लिए कुछ भी करने को सदा तैयार । अशोक भाई प्राय: ऐसी भक्ति नहीं करते किसी किसी की । मुझे बडा अटपटा लगता । मैं अपने ही ढंग का नासमझ । इतने बडे व्‍यक्ति से निकटता नहीं बना सका । मुक्तिबोध के मित्र और भवभूति अलंकरण से सम्‍मानित वरिष्‍ठ साहित्‍यकार का आशीष लेना दीर्घायु होने के लिए जरूरी है, यह जानते हुए भी मैं अपने को सम्‍हालने में सफल न हो पाता ।

मुझे डगमगडैंया करते देख अशोक ने आदेशात्‍मक लहजे में कहा- देखो परदेशी भाई, तुम्‍हारी यही कमजोरी तुम्‍हें नुकसान पहूँचाती है । तुम मिलो, जाओ । भेंट करो । मैंने कहा : जिनसे मिलकर फिर-फिर मिलते रहने का उत्‍साह मुझे नहीं मिलता वहॉं में जबरदस्‍ती का कारोबार नहीं चलाता । अशोक सिंघई भांप गये कि अब सिर्फ ब्राम्‍हास्‍त्र ही अमोध सिद्ध होगा ।
उसने कहा : मुझे कुछ नहीं सुनना । भिलाई के साहित्यिक पर्यावरण के हित में तथा मेरे हित में हैं तुम भले आदमी की तरह सर से मिलो और संबंध बनाते चलो । बुजुर्ग लोग हैं । इस तरह तुनुकमिजाजी किस काम की । बच्‍चे की तरह बिदक जाते हो । मिलना पडेगा । और इस आदेश के बाद मैं न केवल मिला बल्कि साथ में कई कार्यक्रम भी कराने का असफल यत्‍न करने लगा ।

तीन

शैलजा और सागर की पहली किताब ‘मेरे लिए’ का विमोचन लिटररी क्‍लब के द्वारा आयोजित समारोह में होना तय हुआ । प्रसिद्ध निदेशक रामहृदय तिवारी बारबार आग्रह करने लगे कि चलकर लिटररी क्‍लब के अध्‍यक्ष श्री अशोक सिंघई के घर में एक बार उनसे मिल आये । मैं उन्‍हें शाम को ले जाना चाहता था मगर तिवारी जी सुबह मिलना चाहते थे । मैं बचना इसलिए चाहता था क्‍योंकि अशोक भाई का मूड सुबह सुबह खराब बहुत रहता है । तिवारी जी तथा महावीर अग्रवाल सहित मैं सुबह आठ बजे जा पहूंचा सिंघई जी के घर । वे उठकर सुबह की चाय ले रहे थे । हमें देखकर अरन-बरन बाहर आये और हमसे बिना कुछ बोले अपनी नई खरीदी कार को अपने बेटे के साथ साफ करने लगे । यह नापसंदगी जताने का उनका अपना तरीका जो है तिवारी जी कुछ देर धीरज दिखाते हुए बैठे रहे । फिर धीरे धीरे उनका धीरज छूटने लगा । वे चीरहरण से व्‍यथित द्रौपदी की तरह आर्तनाद करते हुए बोले- वर्माजी, अब चलें । बहुत हो गया । मैं सहज बना रहा । क्‍योंकि एक सुबह की हत्‍या के लिए वाजिब और तयशुदा दंड अशोक सिंघई दिये बगैर भला कहॉं मानते ।

चार

भाई रवि श्रीवास्‍तव की सुपुत्री अन्‍नू की निर्मम हत्‍या हो गई । हम सब स्‍तब्‍ध थे । शहर खामोश । लोगों की भीड रातदिन रवि भाई के यहां उन्‍हें सांत्‍वना देने के लिए उमडी पडती थी । अशोक भाई रात-रात जागकर सबको सम्‍हाले रहते । तीसरे दिन मैं दफतर में उनसे मिला । ऑंखे लाल । उदास उदास । गुस्‍सा और व्‍यथा का मिला-जुला भाव चेहरे पर आ जा रहा था ।बात चलाने की गरज से मैंने कहा, अशोक भाई पूरा शहर हमारे दुख में शरीक है । यह कम राहत की बात नहीं है ।
मैं शायद और कहता कि रूलाई के साथ अस्‍फुट शब्‍दों में मैं हत्‍प्रभ रह गया – परदेशी भाई यही तो हमारी कमाई है ।

यह भी अशोक सिंघई थे । सदैव कमान की तरह तनकर रहने वाले तेज तर्रार, संतुलित और विवेकी अशोक ।

पॉंच

पॉंच बरस पहले की बात है । भिलाई-तीन थाने के पास से गुजरती हुई सांसद की कार एक स्‍कूटर सवार नौजवान को देखकर खडी हो गई । दोनों मिले । अट्हास कर लेने के बाद सांसद ने नौजवान से कहा – मिलस नहीं । भुलागेस का । राजिम के मया ला । साहेग होगेस ।

नौजवान ने कहा- साहेब तो महाराज बहुत छोटी चीज है, आप तो दिल में बसते हैं । मगर हम जैसों के लिए आपके पास समय नहीं रहता इसलिए नहीं मिलता । आप तो संत से राजा हो गये । सांसद हतप्रभ । निरूत्‍तर । सांसद थे पवन दीवान और पटन्‍तर देने वाला युवक था अशोक सिंघई ।

छ:

ये कुछ अलग अलग प्रसंग है । इन प्रसंगों में एक व्‍यक्ति के कई रंग दिखते हैं । अशोक सिंघई के बारे में मैं स्‍वयं कुछ न लिखकर केवल कुछ रंग बिखेर देना चाहता था । मगर मैं कलावादी नहीं हूँ इसलिए स्‍थूल चित्रण के बगैर मेरा मन भरता नहीं । शायद आपका भी न भरे इसलिए थोडी सी सपाट सी लगती कुछ और कथायें भी जरूरी लगती है ।

अशोक सिंघई से मेरी भेंट प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम आयोजन में हुई । भिलाई इकाई का गठन हुआ । अशोक और मुझे एक साथ रवि भाई ने सहसचिव बना दिया । अशोक राजिम के हैं । भाई रवि राजिम के । इस तरह एक परिवार बना । हडबडी में जैसा बना वैसा रूप दिया गया संगठन को ।

काम चलने लगा । अशोक सिंघई तब केम्‍प एक के हाई स्‍कूल में रसायन शास्‍त्र के व्‍याख्‍याता थे । नंदिनी से यहां पहूँचे थे । यहॉं आने से पहले वे चंपारण के हाई स्‍कूल में शिक्षक रह चुके थे ।

राजिम अशोक भाई का गांव है । वहां उनके परिवार का अच्‍छा खासा कारोबार है । मगर वे स्‍वभाव से कारोबारी नहीं है । इसलिए अलग लीक पर चलने के लिए उन्‍होंने मास्‍टरी को चुना । रोज मोटर साइकिल से राजिम से चांपारण पढाने जाते थे । पिताजी को यह घाटे का सौदा लगता था । एक दिन उन्‍होंने कह ही दिया कि जितना कमाते हो उससे ज्‍यादा तो पेट्रोल में फूक देते हो ।

उस दिन से अशोक सिंघई साइ‍किल से यात्रा करने लगे । दादी का दुलरूआ अशोक सिंघई खटर-खटर साइकिल से चला जा रहा है । राजिम से धुरमारग का सुख उठाते चम्‍पारण । दादी बहुत व्‍यथित हुई । लेकिन अशोक अडिग । उसने फिर मोटर साइकिल को हाथ नहीं लगाया । आज उनके कवि हृदय पिता अशोक की नई कार में बैठकर सैर सपाटे के लिए भी निकलते हैं । माता पिता को कार में बिठाकर शायद पुरूषार्थी अशोक को वही सुख मिलता हो जो रावण को हिमालय सहित शिव पार्वती को उठाकर, चलने से मिलता रहा होगा । अशोक स्‍वाभिमानी और आत्‍मविश्‍वास से लबालब भरा हुआ कर्मठ व्‍यक्ति है ।

निज भुज बल मैं बयरू बढावा, दैहंव उतरू जो रिपु चढ आवा ।

यही अंदाजा रहता है अशोक का जब कोई उसे अपने शीशे में जबरदस्‍ती उतारने के लिए नाहक चेष्‍टा करने लगता है ।

सेल में नौजवान कर्मियों के लिए एम.टी.ए. की परीक्षा की जब पहली योजना बनी तो भिलाई से एक पूरी बस भरकर मित्रों की टोली गई भोपाल । परीक्षा दिलाने । अशोक भी उनमें से एक थे ।

परिणाम आया तो पूरी बस के यात्रियों में से मात्र यही अपने अशोक भाई लिखित परीक्षा की वैतरणी पार कर सके । साक्षात्‍कार का बुलावा आया । अशोक सिंघई को अपनी विशिष्‍टता का ज्ञान शुरू से रहा है । अशोक सिंघई ने लिट् ररी क्‍लब के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष श्री दानेश्‍वर शर्मा से प्रमाण पत्र लिया कि साहित्यिक रूचि और गति है ।

अपने साहित्यि स्‍टैंड के कारण अशोक सिंघई बाजी मार लाये । ट्रेनिंग के बाद वे जनसंपर्क में पदस्‍थ हुए । आज वहीं वरिष्‍ठ प्रबंधक है । और बेहद सफल वरिष्‍ठ प्रबंधक । निचले पादान से क्रमश: उभरते हुए उँचाइयों को छूना कोई अशोक सिंघई से सीखे । विकट परिस्थितियों में भी वे अधीर नहीं होते । स्‍वाभिमानी इतने कि अकडू लगे । योजना कुशल इतने कि जुगाडू दिखें । स्‍पष्‍टवादी इतने कि मुहफट कहायें । दृढ निश्‍चय इतने कि बेरहम कहलायें । और बौद्धिक ऐसे कि रसहीन माने जायें । लेकिन साहित्‍य और साहित्‍यकारों के संदर्भ में अपनी सारी कमियों और छवियों से अलग एक समर्पित और निष्‍ठावान कलमकार की सारी खूबियों के एकत्र रूप । उच्‍च पदों पर आसीन होने के बाद प्राय: व्‍यक्ति की कुछ रूचियां रूप ग्रहण करने लगती हैं । लेकिन पद उन्‍हें और उनकी रूचि को खा जाता है । इसके उलट जो लोग अपनी कलारूचियों एवं सिद्धियों के महत्‍व को समझते हैं और जीवन में भी सफल होते हैं ऐसे स्‍वाभाविक कलाकार, कवि, लेखक अपनी कला-बिरादरी को भरपुर संरक्षण, बल और आदर देते हैं ।

श्री अशोक सिंघई टूटही साइकिल में चलने वाले गुरूजी होने से पहले ही एक संभावनाशील कवि के रूप में पहचान बना चुके थे । वे छात्र कवि थे । अब तो खैर क्षत्रिय कवि हो गये हैं । मारक कविता लिखने में माहिर है ।

लोगों के बीच 1982-83 में अशोक सिंघई की कविता बचपन में बुलबुले बनाये थे बेहद चर्चित हुई । वे वैचारिक कविता में सिद्ध है । इधर आत्‍मीय संबंधों पर भी उन्‍होंने जमकर लिखा है ।

पत्‍नी पर लिखी उनकी कविताओं से सिद्ध कवियों की बहुचर्चित प्रेम कवितायें याद हो आती हैं ।

अशोक सिंघई का अभ्‍युदय भिलाई नगर में आयोजन कौशल का युग सिद्ध हुआ । विगत पॉंच वर्षो में देश के नामचीन विद्वान भिलाई में आये । स्‍तरीय कार्यक्रम हुए । साधनों के लिए हम अशोक सिंघई के रहते एकदम निश्चिंत रहते हैं । लेखकों की स्‍वतंत्र सत्‍ता हो जाय, ऐसे सत्‍ताधारी लेखक एकजुट हो जाऍं और उन्‍हें साधनों की सुविधा हो जाये तो क्‍या चमत्‍कार हो सकता है, इसे सबसे पहले अशोक सिंघई ने समझा ।

उनकी समझदारी से उत्‍पन्‍न प्रतिफल का लाभ हम सब उठा रहे हैं । कुशल वक्‍ता और चिंतक के रूप में अशोक सिंघई की धाक शुरू से रही । समीक्षा द्ष्टि और विश्‍लेषण बुद्धि के कारण वे हम सबके बीच सभा समितियों में लगभग आतंक की मानिंद उपस्थित रहते है । अशोक सिंघई कई कई दिनों की चल रही तैयारी को अपने तर्को से एक दूसरा ही रूप दे देते हैं । इसीलिए कार्यक्रम बनाने वाले बैठकों के शुरूवाती दौर में उन्‍हें पधारने के लिए न्‍यौता दे देते हैं ।

अशोक सिंघई अब साहित्‍य के ऐसे तेजस्‍वी देव हो गये हैं जिसे साहित्यिक यज्ञ में अगर ससम्‍मान भाग नहीं दिया जाय तो यज्ञ का विध्‍वंश लगभग तय हो जाता है ।

अशोक भाई कितने मित्रवत्‍सल हैं- कितने बॉंस भक्‍त हैं, कितने पितृसेवी हैं- कितने परंपरा विरोधी, किस किसके विरोधी है- किस किसके समर्थक या फिर कब विरोधी है और कब समर्थक, यह दावे से कोई भी कह नहीं सकता ।

अपने पुरूषार्थ की ताकत से मंजिल की ओर तेजी से बढने वाले व्‍यक्तियों में पाया जाने वाला आत्‍मविश्‍वास और अहं दोनों को अशोक सिंघई ने खूब पाला पोसा है ।

अशोक सिंघई के कवित्‍व और व्‍यक्तित्‍व को परवान चढते देखा है श्रीमती सरोज सिंघई ने । एम.ए., बी.एड. तक शिक्षित श्रीमती सरोज सिंघई 79 में बहु बनकर राजिम आई । वे वर्धा जिले के एक छोटे से नगर आरवी से यहां आई । संपन्‍न घर की बेटी और समर्थ घर की बहु सरोज जी ने सेक्‍टर-6 के टू-बी टाइप असुविधाजनक छोटे से क्‍वार्टर को अशोक का भरापूरा घर बना दिया । उस छोटे से घर में भी श्रीमती सरोज सिंघई उसी तत्‍परता और विनम्रता से अपने पढाकू पति के मित्रों का आवभगत करती थीं । तब भी अशोक सिंघई के घर में बडी-बडी जिल्‍दों वाली चमचमाती और मुझे डरावनी सी लगती गूढ ज्ञान से भरी किताबें अटी रहती । सरोज जी उन्‍हीं किताबों से बची जगहों में नाश्‍तें की प्‍लेटे रखा करतीं । आज सेक्‍टर-5 के बडे घर में पहूँच कर भी हालात बहुत नहीं बदले । रखने को तो अशोक सिंघई तब भी एक सवारी रखते थे । बाबा आदम के जमाने की एक साइकिल । लेकिन सरोज जी को तब भी कोई विशेष शिकायत नहीं रहती थी । न ही आज उन्‍हें कोई विशेष गर्व है, जबकि उनके टूटही साइकिल वाले पति आज नई मारूती कार में सर्राटे से भिलाई से राजिम ड्राइव करते हुए सुनहरे फ्रेम के चश्‍में से देखकर सामने वाले को नाप लेने की सिद्धि के लिए चर्चित हो चुके हैं ।
अशोक सिंघई की गाडी में सेल का चिन्‍ह अंकित है । श्री रवि श्रीवास्‍तव और बसंत देशमुख उस सेल चिन्‍हधारी गाडी के विशेष सवार हैं । दोनों बी.एस.पी. के बकायदा अधिकारी जलो ठहरे । रायपुर से राजनांदगांव तक यह गाडी खास साहित्यिक आयोजनों के अवसर पर सरसराती है । महासमुन्‍द, बिलासपुर, बालोद और धमतरी के साहित्‍यकार इस सफेद रंग की गाडी को पहचानते हैं ।

अंचल के साहित्यिक आयोजनों को लेकर जिस तरह की उत्‍तेजक संलग्‍नता अशोक सिंघई में रहती है वह अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलती । समारोह में जाने के लिए कपडों की छंटाई से लेकर साथ चलने वाली सवारियों की सजधज तक सब पर उनकी नजर रहती है । केवल नजर ही नहीं रहती, नजारों का लुत्‍फ भी खूब उठाते हैं । समारोह से लौटने के बाद की कथा हफतों चलती है कि हम लोग उतरे । आयोजकों ने हाथों हाथ लिया । सामने ले जाकर बिठाया । रवि और मैं कोसे के कुरते में थे । सबसे अलग । बसंत भी जवाहर जाकिट में खूब सज रहे थे । सबका ध्‍यान भिलाई पर ठहर गया । मया आ गया ।

या फिर यह कि – सालों को खूब सुनाया कि भिलाई वालों को तो आप लोग कार्ड के काबिल भी नहीं समझते । पेपर पढकर हमलोग आ गये । क्षमा करें, हम तो गेट के बाहर खडे होकर सुनेंगे । भीतर बैठकर सुनने के योग्‍य तो हम है नहीं । खूब लानत-मलामत हुई । हाथ जोडने पर ही छोडा । फिर बैठे जाकर । उसके बाद तो हमीं हम रहे ।

मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि आयोजन को लेकर अशोक भाई इतने पागल क्‍यों हो जाते हैं । पागल तो खैर वे कविता के पीछे भी रहते हैं । विशेषकर विगत् पॉंच वर्षो से । कविता के किताब के लिए तैयारी तीन वर्ष से चल रही है ।

अशोक ही हम सबके बीच ऐसे लेखक हैं जिनकी आज तक कोई किताब नहीं छपी मगर वे कई-कई किताबधारी लेखकों के दिशा निर्देशक और साहित्यिक बॉस है ।

अशोक सिंघई का सारा खेल बहुत सोचा समझा हुआ रहता है । पाण्‍डुलिपि ही वे इस तरह से तैयार कर रहे हैं जिसे देखकर हम सबको अपनी पुस्‍तक फीकी लगती है । और संग्रहों के नाम को लेकर भी कम उँची उडान नहीं है । मुट्ठी पर धूप, शब्‍दश: शब्‍द धीरे-धीरे बहती है नदी, आदि आदि । जहॉं अधीर होना वहॉं अशोक बेहद अधीर पाये जाते हैं । और जहां संयम बरतना है वहां महाव्रती, अटल संकल्‍पवान । अडतालीस की उम्र तक आ गये, वरिष्‍ठ प्रबंधक हो गये, वरिष्‍ठ प्रबंधक हो गये, लिटररी क्‍लब के अध्‍यक्ष बन गये, अंचल के साहित्यिक गलियारे के शेर का दर्जा भी उन्‍हें मिल गया लेकिन संग्रह प्रकाशन के लिए अशोक भाई अधीर नहीं हुए । यही उनकी खूबी है ।
भिलाई में ऐसा कौन मित्र है जिसे अशोक ने बुरी तरह घुडका न हो और कौन ऐसा विरोधी है जिसे योजनापूर्वक उसने शीशे में उतार न लिया हो ।

अब तो दिन – दिन उनका यह कौशल और परवान चढेगा ।

भाई अशोक सिंघई समन्‍वय में माहिर हैं । भोपाली कवि का एकल काव्‍यपाठ भिलाई होटल के एपार्टमेंट में ठीक रहेगा और स्‍थानीय कवि का रचनापाठ लिटररी क्‍लब या बख्‍शी सृजन पीठ में ही जमेगा, यह वे मिनटों में तय कर देते हैं । ऐसी समस्‍याओं पर विद्वत्‍जन घंटों सर पीटते रहते हैं मगर अशोक भाई दर्जनों गेंदों को एक गेंद की तरह उछाल सकते हैं और एक गेंद को ही इस कौशल से उछालते हैं कि दर्जन भर गेंद होने का भ्रम खडा हो जाता है ।
भिलाई इस्‍पात संयंत्र पर वजन भी न पडे और साहित्‍यकार का वजन कम न हो वह दोनों चिंता वे बराबर करते हैं । कमाल यह है कि वे दोनों के बीच शानदार संतुलन बना ले जाते हैं ।

छोटे लिफाफे में भारी भरकम खत डालना और भारी से लिफाफे में शब्‍दश: शब्‍द भी न लिखना उन्‍हें सुहाता है । उनकी सारी सूचनायें चमकदार होती हैं । अभी वे विगत् वर्ष से एक लंबी कविता लिख रहे हैं ।

हिन्‍दी में मुक्तिबोध, निराला, नरेश मेहता, अज्ञेय जैसे कवियों की लंबी कवितायें चर्चित है । हमारे अशोक भाई पूरी योजना के साथ लगभग दो सौ पृष्‍ठों की लंबी कविता के साथ इस सदी की विदाई और नई सदी के स्‍वागत की योजना बना रहे हैं । उस लंबी कविता के अंशों को अंतरंग गोष्ठियों में हमने सुना है । बडी बात यह है कि बीसवीं सदी के अंतर्द्वन्‍द, को ही सिंघई इस लंबी कविता में प्रस्‍तुत करने का प्रयास कर रहे हैं । जय-पराजय, यश-अपयश, हानि-लाभ, के संदर्भ में सदी की पडताल कविता में देखते ही बनती है । प्रस्‍तुत है प्रकाशन के पहले ही चर्चा में आ चुकी सदी को समर्पित लम्‍बी कविता का एक अंश.....

क्‍या अर्थ था मेरे बगैर पृथ्‍वी का
एक निर्जीव दुनिया
विराट व्‍योम में पथ भूल चुकी
एक चपटी और झुर्रीदार गेंद
पृथ्‍वी ने मुझे जन्‍म दिया
चॉंद के आईने में/अपनी कुरूपता निहारती
अपनी उष्‍मा खोते हुए/वेदना के उत्‍ताप में
पृथ्‍वी ने मुझे जन्‍म दिया
पृथ्‍वी ने मेरी रचना की
और मैंने की पृथ्‍वी की पुनर्रचना
सुंदर से सुंदरतम बनाया उसे ।

पिछले दिनों श्रीनारायण लाल परमार जी को दुर्ग जिला साक्षरता समिति द्वारा प्रकाशित उनकी कृति भेंट करने हम धमतरी गये । परमार जी अस्‍वस्‍थ थे । हमने उन्‍हें अस्‍पताल में जाकर सविनय कृति भेंट की । फिर त्रिभुवन पाण्‍डे जी से भेंट हुई । पाण्‍डे जी ने एक जनवरी 99 को दीवान जी के जन्‍म दिवस पर प्रकाशित मेरे लेख के लिए कहा कि तुम्‍हारा अनसेन्‍सर्ड लेख बहुत अच्‍छा लगा । दीवान जी को पकडना है तो यह साहसिकता जरूरी है । हम लोग थोडा सकपकाकर पीछे हट आते हैं । साथ में गये श्री डी.एन. शर्मा एवं जी जमुना प्रसाद कसार को यह अनसेन्‍सर्ड लफज बहुत जमा । पाण्‍डे जी ने आगे कहा कि दीवान जी जैसे बीहड व्‍यक्तित्‍व पर ऐसा ही बेबाक लेखन होना जरूरी है । अब हम सब इस बीहड शब्‍द पर फिर खिलखिलाये ।

श्री त्रिभुवन पाण्‍डे शिल्‍पी हैं । उन्‍होंने बीहड व्‍यक्तित्‍व का दर्जा देकर दीवान जी की विचित्रता को ही रेखांकित किया । बीहड जहां डाकू भी छिप जाये और जहां संत भी समाधिरत होने के लिए जगह बना लें । जहां धसकर आदमी बागी कहलाये । जहां जाने के बाद व्‍यक्ति नये रूप में ढलता चला जाय । जहां आदमी पकडा न जा सके वह कहलाता है बीहड । दीवान जी के लिये प्रयुक्‍त यह लफज बीहड मौजू है । लेकिन मैं इसका विस्‍तार चाहता हूँ । महानदी के किनारे बसे राजिम के हर जोगी का व्‍यक्तित्‍व ऐसा ही है । बीहड व्‍यक्तित्‍व । साहित्‍य के जोगी अशोक सिंघई भी महानदी के किनारे बसे नवापारा के निवासी हैं । उस ओर सन्‍यासी का डेरा, इस ओर जोगी की बस्‍ती है मगर है दोनों बीहड व्‍यक्तित्‍व ।

अशोक सिंघई ने पैदा होने के लिए राजिम को नहीं नवापारा को चुना । उसे सब कहीं नवा पसंद है । पुरानी लीक पर कवि के आदेशानुसार अशोक सिंघई चल भी तो नहीं सकता । कवि ने यह जो कह दिया है...

लीक छॉंड तीनों चले, शायर, सिंह, सपूत ।

यहॉं मार तिहरी है । अशोक शायर भी है, सपूत भी ।
जिस तरह लक्ष्‍मी की कृपा उन पर अब हो रही है उसे देखते हुए और पुरूष सिंह मुपैति लक्ष्‍मी इस स्‍थापना पर विश्‍वास करते हुए अशोक सिंघई को सिंह भी मानना पडता है । सिंह इसलिए भी मानना पडता है क्‍योंकि जिस किसी ने भी उसकी पूंछ पर हाथ रखने की जुर्रत की उसे एक ही गप्‍पा में अशोक हुबक कर लील लिया । लेकिन बिहडता देखिए कि अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, एकता, क्षमा, दया मया का भी कारोबार अशोक के यहॉं पर्याप्‍त मात्रा में मिलता है । बल्कि हम सबके बीच वे इन जीन्‍तों के होल-सेलर है । यह अशोक सिंघई के व्‍यक्तित्‍व को, ठीक पवन दीवान सी, विचित्रता है । जैसे दीवान जी की गहराई की थाह नहीं लगती उसी तरह अशोक सिंघई का अंदाजा नहीं लगता ।

एक अवसर पर किसी पहाड को लतियाते नजर आते हैं तो दूसरे मौके पर एक छोटी सी टिकरी के आगे हाथ बॉंधे खडे दिखते हैं । अराजक ऐसे कि मंत्रियों को बात सुना दें और अनुशासित ऐसे कि अपने बॉस और यहॉं तक मातहत कर्मचारियों के भी बाकायदा पीर, बावर्ची, भिस्‍ती, खर तक बन जाय । सचमुच रजिमहा लोग बीहड व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं ।

अशोक सिंघई की कविताओं के अंशों से गुजरते हुए हमें इसका अहसास शिद्दत से होता है:

विक्रमादित्‍य का ही सिंहासन
मिला हमें विरासत में
हर पुतली गूंगी है अब
हर पाया जगह-जगह घुना है ।
नदियॉं लेटी हैं
जंगल अनमना है ।

xxx xxx xxx

दसों दिशाओं / चौदह भुवनों
और असीम समय की सीमा तक
फैली है / उँची है यह दीवार
अदृश्‍य होकर भी रोकती है
बॉंधती है समय के बंधनों में
संस्‍कारों की सांकलों में
कहानियों की कंदराओं में
हम खो नहीं सकते
जंगलों में / पहाडों में / कछारों में
तुम्‍हें देख नहीं सकते
ऑंखे बंद करके / खोल करके ।

xxx xxx xxx

कविता उग आती है
घास की तरह
इसके बीज कभी नहीं मरते
घास के बीजों की तरह ।

टिप्पणियाँ

  1. ek vyakti ke vibhinn rupo ka bakhubi chitran hua hai....ashok singhai ko jis gahrai se jana , unke vyaktitva ke jin pahluon ko ubhara,we prashasniya hain...aapki kalam ki jai ho.......

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  2. तारीफ़ेकाबिल है कि परदेशी राम जी ने बड़ी सरलता से सिंघई जी के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को सामने रखा है!!

    इन्हें पढ़कर सिंघई जी से मिलने की इच्छा हो उठी है, देखते हैं कि कभी भिलाई आकर इनसे मिलने का मौका मिल पाता है या नही!!

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  3. अशोक सिंघई जी बहुत ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक हैं। पढ कर अच्छा लगा और बरबस उनसे मिलने की इच्छा मन में जागती है। आप को भी धन्यवाद इतने प्रतिभाशाली व्यक्ती के बारे में इतने विस्तार में बताने के लिए

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