विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
आलेख - राम हृदय तिवारी (लोकरंग के लेख संग्रह से)
युग आते हैं और चले जाते हैं, पर मनुष्य जीवन की कुछ ऐसी सच्चाईयां हैं, जो कथा की शक्ल में शेष रह जाती हैं । पंडवानी महाभारत की ऐसी ही कथा का छत्तीसगढी रूपान्तरण हैं । छत्तीसगढ के आम लोगों की सहज सरल जीवन शैली से, उनके भोले हृदय की धडकनों से संगीत का अविराम स्त्रोत बहता है । ग्रामीण जीवन की हर सांस, गीत और नृत्य की लयकारी में बंधी होती है । नाचा, करमा, ददरिया, सुआ, बांस गीत, चंदैनी, पंथी, गौरा जंवारा जैसी अनेक लोक विधाएं छत्तीसगढ की सांस्कृतिक बगिया के महकते हुए फूल हैं – उनमें सर्वोपरि सुगंधित सुमन का नाम है – पंडवानी । पंडवानी छत्तीसगढ अंचल के मनोरंजन का पारंपरिक साधन ही नहीं, श्रद्धा, भक्ति, शौर्य और पराक्रम के प्रति ललक की मोहक अभिव्यक्ति है । यह एक मौलिक गायन, वादन एवं आंगिक अभिव्यक्ति की बहुचर्चित लोक-तात्विक विधा है । देश में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात पंडवानी ऐसी विशुद्ध एवं अनूठी लोक वाचिक परंपरा है जो मूलत: छत्तीसगढ की देन है । छत्तीसगढ में सर्वाधिक प्रचलित, परिचित और चर्चित हैं ।
पंडवानी स्वांग और संगीत का ऐसा मनोरम संगम है, जहां महाभारत के अमर पात्रों की शौर्य गाथा हिलोरें लेती है । मुनि व्यास द्वारा वर्णित एवं गणाधिदेव गणेश द्वारा अंकित महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं, अपितु समस्त मानवीय मूल्यों, आवेगों, मनोभावों और सबसे उपर मनुष्य की आदिम वृत्तियों और कामनाओं का सूक्ष्म चित्रण है । यह महाकाव्य मानव मन के गूढतम सत्य को उजागर करता है कि मनुष्य का केवल कर्म ही, धर्म-अधर्म का निर्णायक है और सत्य-असत्य के निर्णायक युद्ध में विजय अंतत: सत्य की ही होती है । इस शाश्वत निष्कर्ष के साथ साथ राग और विराग, प्रेम और घृणा, मानवीय विसंगतियों और विरोधाभाषों से भरे हुए महाभारतीय पात्रों का लोकनिरूपण अद्भुत ढंग से हुआ है पंडवानी में । छत्तीसगढी बोली में कितना माधुर्य और विस्तार है, जीवन के सूक्ष्म और गूढतम भावों को अभिव्यक्त करने की कितनी अपार क्षमता है – यह पंडवानी की मूल शक्ति है तथा उसकी मोहकता और पहचान की आधारशिला भी । पंडवानी वस्तुत: महाभारत की शश्वत कथा का छत्तीसगढी संस्करण है ।
हस्तिनापुर के लिए लडे गये कुरूक्षेत्र के मैदान में जो महावीर आमने सामने थे, वे पुश्तैनी शत्रु नहीं थे । एक ही वंश के वंशज थे । एक ही गुरूकुल में उन्होंने शिक्षा पाई थी । अनंत महाकाल में समाये दोनों ही, किन्तु यशोमाला आज भी सुशोभित हो रही है पांडवों के कंठ में । पांडवों की यही अमर यशोगाथा पंडवानी की केन्द्रीय विषयवस्तु और भाव भूमि है । उस गरिमामय एवं आत्मीय अतीत के पुनरागमन की अनजानी प्यास ही इस लोक शैली की अबाध लोकप्रियता का रहस्य है । पंडवानी ऐसा महासिंधु है, जिसमें अनगिनत चरित्रों की उर्मियां लोक रूपों में ढलकर तरंगायित होती हैं । अपने सम्पूर्ण रोमांच और सम्मोहकता के साथ । पंडवानी इस विशाल लहरों के आरोह अवरोह की लोक संगीतिक समरसता की अनोखी अनुगूंज है ।
पंडवानी की प्रस्तुति के लिए किसी विशेष पर्व, त्यौहार या अवसर की अनिवार्यता नहीं है । एक रात से लेकर कई रातों तक लगातार चलने वाली पंडवानी बैठकर भी गाई जाती है और खडे होकर भी तथा घुटनों का सहारा लेकर भी । यह एक ऐसा मोनोप्ले है जिसमें अंग संचालन, भावाभिव्यक्ति, स्वरों के तीव्र आरोह अवरोह के साथ साथ संगीत की गलबहियां श्रोताओं को सम्मोहन पाश में बांधे रखती है । तम्बूरा पंडवानी का अभिन्न संगी और सहचर है । इसकी मंचीय प्रस्तुति में साथ बैठे हुंकारू देने वाले रागी की भूमिका, कथा को लयात्मक गतिशीलता देने और रोचकता को बराबर बनाये रखने में महत्वपूर्ण है । अपने हुंकारू द्वारा और बीच बीच में रोचक प्रश्नों के ,द्वारा कथा को दो स्तरों पर विभाजित करता हुआ रागी समकालीन व्याख्या के लिए पृष्टभूमि तैयार करने में दक्ष होता है ।
वेदमति और कापालिक शाखाओं के नाम से विभक्त इस पंडवानी के जिस स्वरूप से हम सब ज्यादा परिचित हैं – वह कापालिक शाखा की विख्यात शैली है, जो शास्त्रीय कथा को लोकरंग के नये परिधान देकर पूरे आत्मविश्वास के साथ हमारे सामने लाती है । ऐसा कहा जाता है कि कापालिक शाखा का अभ्युदय वेदमति शाखा की पारंपरिकता के विरोध स्वरूप हुआ । कापालिक शाखा के गायकों नें समयानुकूल लोकरूचि के वाद्यों का समावेश अपनी प्रस्तुति में किया । गायकी की नयी आक्रमक शैली का अविष्कार किया । गाथा को अंचल की प्रचलित लोक धुनों में बांधा और पूरी सजधज के साथ प्रसंगानुकूल एकल अभिनय की शुरूआत हुई, जिसका चरमोत्कर्ष आज भी विश्व विख्यात पंडवानी गायिका पद्मभूषण तीजन बाई में देखा जा सकता है । पंडवानी की यह आकर्षक शैली गायन के साथ आंशिक नृत्य नाट्य का भी आनंद देने में पूर्णत: सक्षम है, इसीलिए कुछ विद्वानों नें इसे फोक बेले की संज्ञा से भी विभूषित किया है । इस विधा में संगीत, भावाभिनय और कथा व्याख्या, तीनों का आनुपातिक समिश्रित सौंदर्य सचमुच सम्मोहन पाश में श्रोताओं को बांध लेता है ।
आज इस लोक परंपरा में वरिष्ठ पंडवानी गायक स्व. झााडूराम देवांगन से लेकर श्रीमति ऋतु वर्मा के बीच अनेक ख्याति लब्ध पंडवानी गायकों की लम्बी श्रृंखला है । खूबलाल यादव, रामाधार सिंन्हा, फूल सिंह साहू, लक्ष्मी साहू, प्रभा यादव, शांतिबाई चेलक, सोमे शास्त्री, पुनिया बाई, जेना बाई, उषा बारले, मीना साहू जैसे कई ख्यात नाम हैं, जो तम्बेरा हाथ में थामें, पूरे आत्मविश्वास के साथ इस लोक परंपरा को आगे बढा रहे हैं । झाडूराम देंवागन, पूनाराम निषाद, तीजन बाई और ऋतु वर्मा ऐसे चर्चित और सिहस्त कलाकारों के नाम है, जिन्होंनें फ्रांस, इंग्लैण्ड, जापान, जर्मनी जैसे देशों में जाकर पंडवानी की कीर्ति पताका फहराई और अंचल का ही नहीं, समूचे भारत का नाम रोशन किया है ।
पंडवानी के जगमगाते वर्तमान शिखर के पीछे इसकी मूल यात्रा का लोक तात्विक इतिहास लगभग अंधेरे में है, इसलिए बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी है । छत्तीसगढ में गोडों की एक उपजाति परधान के नाम से जानी जाती है और दूसरी घुमन्तु जाति होती है – देवार । शोधकर्ता कहते हैं कि पंडवानी मूलत: इन्हीं दोनों जातियों की वंशानुगत गायन परंपरा है जो पंडवानी नाम धरकर समयानुसार विकसित होते होते वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है । परधानों और देवारों की बोली, शैली और वाद्यों में अंतर होता है । परधान के हाथ में होता है किंकणी या बाना नामक सारंगीनुमा वाद्य और रूंझू देवारों का जातिगत वाद्या है । इन दोनों कथा गायन का केन्द्रीय चरित्र भीम है । पूरी कथा मुख्यत: भीम के ही इर्द गिर्द घूमती है और उसके साथ ही आगे बढती है । इसके गायन में भीम अतुल बल, पौरूष, पराक्रम और साहस का पर्याय होने के साथ साथ गुस्सैल और अन्याय पर टूट पडने वाला अद्भुत पात्र है, जिसके चित्रण का अनोखा अंदाज श्रोताओं को अवाक् और चमत्कृत कर देता है ।
महाभारत के इतने विविध चरित्रों में पंडवानी गायकों नें भीम को ही इतनी प्रमुखता और महत्ता क्यों दी इसके अपने सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं । यह एक रोचक तथ्य है कि पंडवानी गायन परंपरा में संलग्न लगभग सभी कलाकार द्विजेतर जातियों के हैं । सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और दबे कुचले इन जातियों के लोग अपने दमित आक्रोश की अभिव्यक्ति और संतुष्टि भीम के चरित्र में पाते हैं । भीम की अतुल शौर्यगाथा गाकर ये कलाकार अपने भीतर छुपे प्रतिशोध की चिरजीवी साध को संतुष्ट करते हैं, साथ ही अपने बीच भी किसी महान पराक्रमी भीम के अवतरण की मंशा संजोए कथा में डूबते उतराते रहते हैं । भीम के कथा प्रसंग को जिस तन्मयता और गौरव के साथ ये सिद्धस्थ कलाकार गाते हैं, उसमें उनकी जातिगत मौलिकता और आदिम लोक तत्व की उर्जा विद्यमान रहती है ।
आश्चर्य होता है यह जानकर कि पंडवानी की एक भी लिखित पांडुलिपि अंचल में उपलब्ध नहीं हैं । पंडवानी के कलाकार बताते हैं कि सबल सिंह चौहान की पद्यमय टीका को ही पढकर या ज्यादातर सुनकर समूची कथा को कंठस्थ कर लेते हैं और अपने अपने ढंग से वर्णन और विस्तार देकर परंपरा को गति देते रहते हैं । शास्त्रीयता और लोकतत्व सदा एकदूसरे के विरोधी ही नहीं होते, उनके परस्पर प्रभाव से एक नई चीज भी पैदा हो सकती है – पंडवानी इसकी जीवन्त मिशाल है । यह विधा सचमुच छत्तीसगढ की लोक वाचिक परम्परा की श्रेष्ठतम उपलब्धि है ।
वेदमति शाखा वाली पंडवानी की शैली अब लगभग बिखराव अथवा समाप्ति के कगार पर है, मगर सुविख्यात कापालिक शैली की सलिला आज पूरे वेग से प्रवाहमान है । अपनी संम्पूर्ण सरसता और मधुरता के साथ । इसका उद् गम क्या है गंतव्य कहां है कौन कह सकता है कितने नालों नरवों को इसने मिलाया, कितने कूल कछारों को इसने भिगोया – कौन जान सकता है महाराष्ट के तमाशा नें नाचा को प्रभावित किया या छत्तीसगढ के नाचा नें तमाशा को आंध्रप्रदेश की बुर्राकथा पंडवानी से उत्प्रेरित है या स्वयं पंडवानी, बुर्राकथा से अनुप्राणित निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है । केवल एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है, भारत की सारी लोक कलाएं, चाहे उनके नाम, रूप और रंग अलग अलग हों पर सबके प्राणिक स्पन्दन और आत्मीय अनुभूतियां, मानसिक आवेग एक समान है । मिट्टी की महक तो सभी जगह एक ही होती है । सारे लोक कलारूपों में उसी एक मिट्टी की महक, धरती की खुशबू है । पंडवानी ही नहीं विश्व की समस्त लोक कलाओं की सबसे बडी पहचान और सम्मोहकता का आधार, उनका धरती से गहरा जुडाव है । यह जुडाव ही वसुधैव कुटुम्बकम् की आधार शिला है । विश्व के कई देशों में पंडवानी का स्वागत और स्वीकार, विश्व जनित सांस्कृतिक एकता का सशक्त प्रमाण है ।
युग आते हैं और चले जाते हैं, पर मनुष्य जीवन की कुछ ऐसी सच्चाईयां हैं, जो कथा की शक्ल में शेष रह जाती हैं । पंडवानी महाभारत की ऐसी ही कथा का छत्तीसगढी रूपान्तरण हैं । छत्तीसगढ के आम लोगों की सहज सरल जीवन शैली से, उनके भोले हृदय की धडकनों से संगीत का अविराम स्त्रोत बहता है । ग्रामीण जीवन की हर सांस, गीत और नृत्य की लयकारी में बंधी होती है । नाचा, करमा, ददरिया, सुआ, बांस गीत, चंदैनी, पंथी, गौरा जंवारा जैसी अनेक लोक विधाएं छत्तीसगढ की सांस्कृतिक बगिया के महकते हुए फूल हैं – उनमें सर्वोपरि सुगंधित सुमन का नाम है – पंडवानी । पंडवानी छत्तीसगढ अंचल के मनोरंजन का पारंपरिक साधन ही नहीं, श्रद्धा, भक्ति, शौर्य और पराक्रम के प्रति ललक की मोहक अभिव्यक्ति है । यह एक मौलिक गायन, वादन एवं आंगिक अभिव्यक्ति की बहुचर्चित लोक-तात्विक विधा है । देश में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात पंडवानी ऐसी विशुद्ध एवं अनूठी लोक वाचिक परंपरा है जो मूलत: छत्तीसगढ की देन है । छत्तीसगढ में सर्वाधिक प्रचलित, परिचित और चर्चित हैं ।
पंडवानी स्वांग और संगीत का ऐसा मनोरम संगम है, जहां महाभारत के अमर पात्रों की शौर्य गाथा हिलोरें लेती है । मुनि व्यास द्वारा वर्णित एवं गणाधिदेव गणेश द्वारा अंकित महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं, अपितु समस्त मानवीय मूल्यों, आवेगों, मनोभावों और सबसे उपर मनुष्य की आदिम वृत्तियों और कामनाओं का सूक्ष्म चित्रण है । यह महाकाव्य मानव मन के गूढतम सत्य को उजागर करता है कि मनुष्य का केवल कर्म ही, धर्म-अधर्म का निर्णायक है और सत्य-असत्य के निर्णायक युद्ध में विजय अंतत: सत्य की ही होती है । इस शाश्वत निष्कर्ष के साथ साथ राग और विराग, प्रेम और घृणा, मानवीय विसंगतियों और विरोधाभाषों से भरे हुए महाभारतीय पात्रों का लोकनिरूपण अद्भुत ढंग से हुआ है पंडवानी में । छत्तीसगढी बोली में कितना माधुर्य और विस्तार है, जीवन के सूक्ष्म और गूढतम भावों को अभिव्यक्त करने की कितनी अपार क्षमता है – यह पंडवानी की मूल शक्ति है तथा उसकी मोहकता और पहचान की आधारशिला भी । पंडवानी वस्तुत: महाभारत की शश्वत कथा का छत्तीसगढी संस्करण है ।
हस्तिनापुर के लिए लडे गये कुरूक्षेत्र के मैदान में जो महावीर आमने सामने थे, वे पुश्तैनी शत्रु नहीं थे । एक ही वंश के वंशज थे । एक ही गुरूकुल में उन्होंने शिक्षा पाई थी । अनंत महाकाल में समाये दोनों ही, किन्तु यशोमाला आज भी सुशोभित हो रही है पांडवों के कंठ में । पांडवों की यही अमर यशोगाथा पंडवानी की केन्द्रीय विषयवस्तु और भाव भूमि है । उस गरिमामय एवं आत्मीय अतीत के पुनरागमन की अनजानी प्यास ही इस लोक शैली की अबाध लोकप्रियता का रहस्य है । पंडवानी ऐसा महासिंधु है, जिसमें अनगिनत चरित्रों की उर्मियां लोक रूपों में ढलकर तरंगायित होती हैं । अपने सम्पूर्ण रोमांच और सम्मोहकता के साथ । पंडवानी इस विशाल लहरों के आरोह अवरोह की लोक संगीतिक समरसता की अनोखी अनुगूंज है ।
पंडवानी की प्रस्तुति के लिए किसी विशेष पर्व, त्यौहार या अवसर की अनिवार्यता नहीं है । एक रात से लेकर कई रातों तक लगातार चलने वाली पंडवानी बैठकर भी गाई जाती है और खडे होकर भी तथा घुटनों का सहारा लेकर भी । यह एक ऐसा मोनोप्ले है जिसमें अंग संचालन, भावाभिव्यक्ति, स्वरों के तीव्र आरोह अवरोह के साथ साथ संगीत की गलबहियां श्रोताओं को सम्मोहन पाश में बांधे रखती है । तम्बूरा पंडवानी का अभिन्न संगी और सहचर है । इसकी मंचीय प्रस्तुति में साथ बैठे हुंकारू देने वाले रागी की भूमिका, कथा को लयात्मक गतिशीलता देने और रोचकता को बराबर बनाये रखने में महत्वपूर्ण है । अपने हुंकारू द्वारा और बीच बीच में रोचक प्रश्नों के ,द्वारा कथा को दो स्तरों पर विभाजित करता हुआ रागी समकालीन व्याख्या के लिए पृष्टभूमि तैयार करने में दक्ष होता है ।
वेदमति और कापालिक शाखाओं के नाम से विभक्त इस पंडवानी के जिस स्वरूप से हम सब ज्यादा परिचित हैं – वह कापालिक शाखा की विख्यात शैली है, जो शास्त्रीय कथा को लोकरंग के नये परिधान देकर पूरे आत्मविश्वास के साथ हमारे सामने लाती है । ऐसा कहा जाता है कि कापालिक शाखा का अभ्युदय वेदमति शाखा की पारंपरिकता के विरोध स्वरूप हुआ । कापालिक शाखा के गायकों नें समयानुकूल लोकरूचि के वाद्यों का समावेश अपनी प्रस्तुति में किया । गायकी की नयी आक्रमक शैली का अविष्कार किया । गाथा को अंचल की प्रचलित लोक धुनों में बांधा और पूरी सजधज के साथ प्रसंगानुकूल एकल अभिनय की शुरूआत हुई, जिसका चरमोत्कर्ष आज भी विश्व विख्यात पंडवानी गायिका पद्मभूषण तीजन बाई में देखा जा सकता है । पंडवानी की यह आकर्षक शैली गायन के साथ आंशिक नृत्य नाट्य का भी आनंद देने में पूर्णत: सक्षम है, इसीलिए कुछ विद्वानों नें इसे फोक बेले की संज्ञा से भी विभूषित किया है । इस विधा में संगीत, भावाभिनय और कथा व्याख्या, तीनों का आनुपातिक समिश्रित सौंदर्य सचमुच सम्मोहन पाश में श्रोताओं को बांध लेता है ।
आज इस लोक परंपरा में वरिष्ठ पंडवानी गायक स्व. झााडूराम देवांगन से लेकर श्रीमति ऋतु वर्मा के बीच अनेक ख्याति लब्ध पंडवानी गायकों की लम्बी श्रृंखला है । खूबलाल यादव, रामाधार सिंन्हा, फूल सिंह साहू, लक्ष्मी साहू, प्रभा यादव, शांतिबाई चेलक, सोमे शास्त्री, पुनिया बाई, जेना बाई, उषा बारले, मीना साहू जैसे कई ख्यात नाम हैं, जो तम्बेरा हाथ में थामें, पूरे आत्मविश्वास के साथ इस लोक परंपरा को आगे बढा रहे हैं । झाडूराम देंवागन, पूनाराम निषाद, तीजन बाई और ऋतु वर्मा ऐसे चर्चित और सिहस्त कलाकारों के नाम है, जिन्होंनें फ्रांस, इंग्लैण्ड, जापान, जर्मनी जैसे देशों में जाकर पंडवानी की कीर्ति पताका फहराई और अंचल का ही नहीं, समूचे भारत का नाम रोशन किया है ।
पंडवानी के जगमगाते वर्तमान शिखर के पीछे इसकी मूल यात्रा का लोक तात्विक इतिहास लगभग अंधेरे में है, इसलिए बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी है । छत्तीसगढ में गोडों की एक उपजाति परधान के नाम से जानी जाती है और दूसरी घुमन्तु जाति होती है – देवार । शोधकर्ता कहते हैं कि पंडवानी मूलत: इन्हीं दोनों जातियों की वंशानुगत गायन परंपरा है जो पंडवानी नाम धरकर समयानुसार विकसित होते होते वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है । परधानों और देवारों की बोली, शैली और वाद्यों में अंतर होता है । परधान के हाथ में होता है किंकणी या बाना नामक सारंगीनुमा वाद्य और रूंझू देवारों का जातिगत वाद्या है । इन दोनों कथा गायन का केन्द्रीय चरित्र भीम है । पूरी कथा मुख्यत: भीम के ही इर्द गिर्द घूमती है और उसके साथ ही आगे बढती है । इसके गायन में भीम अतुल बल, पौरूष, पराक्रम और साहस का पर्याय होने के साथ साथ गुस्सैल और अन्याय पर टूट पडने वाला अद्भुत पात्र है, जिसके चित्रण का अनोखा अंदाज श्रोताओं को अवाक् और चमत्कृत कर देता है ।
महाभारत के इतने विविध चरित्रों में पंडवानी गायकों नें भीम को ही इतनी प्रमुखता और महत्ता क्यों दी इसके अपने सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं । यह एक रोचक तथ्य है कि पंडवानी गायन परंपरा में संलग्न लगभग सभी कलाकार द्विजेतर जातियों के हैं । सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और दबे कुचले इन जातियों के लोग अपने दमित आक्रोश की अभिव्यक्ति और संतुष्टि भीम के चरित्र में पाते हैं । भीम की अतुल शौर्यगाथा गाकर ये कलाकार अपने भीतर छुपे प्रतिशोध की चिरजीवी साध को संतुष्ट करते हैं, साथ ही अपने बीच भी किसी महान पराक्रमी भीम के अवतरण की मंशा संजोए कथा में डूबते उतराते रहते हैं । भीम के कथा प्रसंग को जिस तन्मयता और गौरव के साथ ये सिद्धस्थ कलाकार गाते हैं, उसमें उनकी जातिगत मौलिकता और आदिम लोक तत्व की उर्जा विद्यमान रहती है ।
आश्चर्य होता है यह जानकर कि पंडवानी की एक भी लिखित पांडुलिपि अंचल में उपलब्ध नहीं हैं । पंडवानी के कलाकार बताते हैं कि सबल सिंह चौहान की पद्यमय टीका को ही पढकर या ज्यादातर सुनकर समूची कथा को कंठस्थ कर लेते हैं और अपने अपने ढंग से वर्णन और विस्तार देकर परंपरा को गति देते रहते हैं । शास्त्रीयता और लोकतत्व सदा एकदूसरे के विरोधी ही नहीं होते, उनके परस्पर प्रभाव से एक नई चीज भी पैदा हो सकती है – पंडवानी इसकी जीवन्त मिशाल है । यह विधा सचमुच छत्तीसगढ की लोक वाचिक परम्परा की श्रेष्ठतम उपलब्धि है ।
वेदमति शाखा वाली पंडवानी की शैली अब लगभग बिखराव अथवा समाप्ति के कगार पर है, मगर सुविख्यात कापालिक शैली की सलिला आज पूरे वेग से प्रवाहमान है । अपनी संम्पूर्ण सरसता और मधुरता के साथ । इसका उद् गम क्या है गंतव्य कहां है कौन कह सकता है कितने नालों नरवों को इसने मिलाया, कितने कूल कछारों को इसने भिगोया – कौन जान सकता है महाराष्ट के तमाशा नें नाचा को प्रभावित किया या छत्तीसगढ के नाचा नें तमाशा को आंध्रप्रदेश की बुर्राकथा पंडवानी से उत्प्रेरित है या स्वयं पंडवानी, बुर्राकथा से अनुप्राणित निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है । केवल एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है, भारत की सारी लोक कलाएं, चाहे उनके नाम, रूप और रंग अलग अलग हों पर सबके प्राणिक स्पन्दन और आत्मीय अनुभूतियां, मानसिक आवेग एक समान है । मिट्टी की महक तो सभी जगह एक ही होती है । सारे लोक कलारूपों में उसी एक मिट्टी की महक, धरती की खुशबू है । पंडवानी ही नहीं विश्व की समस्त लोक कलाओं की सबसे बडी पहचान और सम्मोहकता का आधार, उनका धरती से गहरा जुडाव है । यह जुडाव ही वसुधैव कुटुम्बकम् की आधार शिला है । विश्व के कई देशों में पंडवानी का स्वागत और स्वीकार, विश्व जनित सांस्कृतिक एकता का सशक्त प्रमाण है ।
पंडवानी और तीजन तो पर्याय मान कर चलते हैं हम। बहुत दिनों से देखा-सुना नहीं पर जब भी देखा, बहुत रस लिया. बहुधा महाभारत के प्रसंगों पर नया ज्ञान भी मिला उनसे।
जवाब देंहटाएंआपने प्रस्तुत किया यह लेख - उसके लिये धन्यवाद।
ज्ञानवर्धक लेख पर ज्ञानजी की सटीक टिप्पणी, वाकई तीजन बाई ने जिन उचाईंयों को छुआ है उसके चलते, देश ही नही विदेशों मे भी पंडवानी और तीजनबाई को पर्याय ही मान लिया जाता है!!
जवाब देंहटाएंहालांकि पंडवानी गायक गायिकाओं की एक लंबी फ़ेहरिस्त है लेकिन तीजनबाई की तो बात ही निराली है।
आरंभ का शुक्रिया कि उसने तिवारी जी के इस ज्ञानवर्धक लेख को हम तो पहुंचाया, इसके कारण पंडवानी से जुड़े यह तथ्य हम जाने सके!!
बहुत बढ़िया प्रस्तुति, संजीव. अस्सी और नब्बे के दशक में जब भी टीवी पर तीजनबाई को पंडवानी के लिए स्टेज पर देखते थे, मन प्रसन्न हो जाता था. बहुत इच्छा है की उन्हें एक बार आमने-सामने देखूं.जब भी उन्हें परफार्म करते देखते थे, तो एक बात मन में आती थी, कि अभिनय पर ऐसी पकड़ बहुत कम लोगों की है.
जवाब देंहटाएंभाई मैंने रेखा रानी देवार और कुछ औरों से भी पांजवानी सुनी है तीजन के अलावा।
जवाब देंहटाएंबहुत जानकारी देनेवाला लेख।
बधाई
साहित्य अकादेमी ने एक किताब छापी है
भीलों का भारथ
उसमें ये सारे महाभारत प्रसंग हैं..जो पाँडवानी में गाए जाते हैं....