ऑंसुओं से जन्‍मे कहकहों का कला संसार : नाचा (Chhattisgarhi Folk - Nacha) सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

ऑंसुओं से जन्‍मे कहकहों का कला संसार : नाचा (Chhattisgarhi Folk - Nacha)

छत्‍तीसगढ के पारंपरिक लोक नाट्य नाचा के संबंध में अनेकों विद्वानों नें लिखा है एवं इसके मूल स्‍वरूप को अपने अपने विचारों में प्रस्‍तुत किया है । प्रस्‍तुत है छत्‍तीसगढ के ख्‍यातिनाम लोकनाट्य एवं फिल्‍म निर्देशक श्री राम हृदय तिवारी जी से इस संबंध में उनके विचार जो उनकी कलापारखी निगाहों एवं छत्‍तीसगढ की संस्‍कृति के गहरे अनुभव व अध्‍यन का सार है :-

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छत्‍तीसगढ – भारत का ह्रदय स्‍थल – एक प्‍यारा सा प्रान्‍त, जिसे इतिहास ने दक्षिण कौशल के नाम से पुकारा है, भूगोल ने धान का कटोरा कहकर स्‍नेह से दुलारा है, पुरातत्‍व ने जिसे महाकान्‍तार की संज्ञा से संवारा है – वहीं संस्‍क्रति ने लोक कलाओं का कुबेर कहकर अंचल का मान बढाया है ।

यह एक सच्‍चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्‍होंने हमें किया है । करमा, ददरिया और सुआ की स्‍वर लहरियॉं, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएँ सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं । यहां के निवासियों में सहज उदार, करूणामय और सहनशील मनोव्रत्ति, संवेदना के स्‍तर पर कलारूपों से बहुत गहरे जुडे रहने का परिणाम है । छत्‍तीसगढ का जन जीवन अपने पारंपरिक कलारूपों के बीच ही सांस ले सकता है । समूचा अंचल एक ऐसा कलागत – लयात्‍मक – संसार है, जहां जन्‍म से लेकर मरण तक – जीवन की सारी हल-चलें, लय और ताल के धागे से गूंथी हुई हैं । कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्‍वर लोकमंचीय कला स्रष्टि का जन्‍म हुआ है – जिसे हम सब नाचा के नाम से जानते हैं ।

नाचा छत्‍तीसगढ की लोक संस्‍क्रति की आबोहवा का एक महकता झोंका है । नाचा इस अंचल के सरल सपनों का प्रतिबिम्‍ब है । अनगढ जनजीवन से जन्‍म लेने वाला सुगढ नाचा, सच पूछिए तो, ग्रामीण कलाकारों द्वारा पथरीली जमीन पर चन्‍दन बोने की हिमाकत है । समूचे छत्‍तीसगढी लोक जीवन की नब्‍ज को टटोलने का सबसे कारगर माध्‍यम है नाचा ।

नाचा का अलग रंग है, भाव है, मस्‍ती है, प्रवाह है । एक ओर जहां इसमें परंपरा निर्वाह की चाह है, वहीं अनचाही परंपरा की चट्टानों को तोडने की अदम्‍य शक्ति भी है । नाचा, नगरीय रंगमच के बौद्विक विलास से उबे मन की विश्रान्ति है । उसमें लोगों को विमुग्‍ध करने और मन के तारों को झंक्रत करने की अदभूत क्षमता है । और है ऑंसुओं को पीकर मुस्‍कान, बॉटने की सहज सरल चेष्‍टा । छत्‍तीसगढ अंचल की सम्‍पूर्ण सहजता, सरलता, मोहकता और माधुर्य जहां एक मंच पर सिमट आए हों, उस मंच का नाम नाचा है । अपनी दीनता, हीनता, अशिक्षा, उपेक्षा और अपमान की आग में तपकर ग्रामीण कलाकार जिस कला संसार की स्रष्टि करते हैं, उस संसार का नाम है नाचा । नाचा न्रत्‍य गीत और गम्‍मत का अनूठा संगम है ।

इन सबके बावजूद, सदियों से उपेक्षित, तिरस्‍क्रत और हेय समझे जाने वाले इस नाचा की ओर विद्वानों की द्रष्टि अभी हाल के वर्षो में गई । नाचा ने ऐसे भी दिन देखे हैं, जब शिष्‍ट और सभ्रान्‍त समाज नाचा देखना अपनी गरिमा के विरूद्ध समझता था । आज इस विश्‍वविख्‍यात नाचा पर बहुत कुछ लिखा गया है । इस पर आज अनेक शोधार्थी शोधकार्य में संलग्‍न है, कई पी.एच.डी. की डिग्री ले चुके हैं । हालत आज यह है कि गांव के चौपालों से उठकर महानगरों की अट्टालिक मंचों पर नाचा के भव्‍य प्रदर्शन हो चुके हैं । अपनी अनोखी शैली, सादगी, संप्रेषणीयता और आडंबरहीनता के कारण आज नाचा लोकमंचीय आकाश में एक चमकता हुआ नक्षत्र बन चुका है । आइए अब हम उन साहित्‍यकारों, विद्वानों और कलामनीषियों की राय जानें, जिन्‍होंने नाचा को अपने-अपने ढंग से अलग-अलग अवसरों पर परिभाषित किया है । डॉ. शिव कुमार मधुर की राय है – नाचा अपने नाम के अनुरूप मूलत: न्रत्‍यप्रधान विधा है । नाचा यानि न्रत्‍य प्रधान छत्‍तसीगढ का लोक मंच । निरंजन महावर लिखते हैं – नाचा एक सर्वजातीय रंग विधा है, जिसका उदभव और विकास ग्रामीण समाज में हुआ तथा उसमें अनेक परंपरागत विधाओं ने सम्मिलित होकर उसे सम्रद्ध किया है । नाचा मूलत: एक हास्‍य प्रधान नाट्य विधा है । म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद से जुडे नवल शुक्ल कहते हैं - नाचा नृत्य भाव और मुद्राओं का लयात्मक संसार है, यह आदमी की जिजीविषा और अभिव्यक्ति का संसार है । नारायण लाल परमार जी की राय थी कि नाचा पूर्ण रुपेण एक जीवन केन्द्रित लोक विधा है । मनोरंजन और शिक्षण का जैसा मणिकांचन संयोग इसमें मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्भभ है । नाचा अंचल के उत्थान पतन का आरसी है । डॉ विनय पाठक के अनुसार- लोक नाठ्य नाचा की सहजता उसका श्रृंगार है और उसका अल्हड़ कमनीय सुघड़ रुप उसका आकर्षण । शांति यदु लिखती है- छत्तीसगढी लोक नाट्य नाचा का मौखिक इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानवीय संस्कृति और सभ्यता का इतिहास । स्व. राम चन्द्र देशमुख कहते थे - नाचा छत्तीसगढ के गांवों की सहजता, निश्छलता और बेलाग रिश्तों की पृष्ठभूमि है इसके साथ । सापेक्ष के संपादक डाँ. महावीर अग्रवाल लिखते हैं- शिष्ट जीवन की सारी सौजन्यता, रस सिद्धता और कलात्मकता नाचा के चुम्बकीय आकर्षण के सामने फीकी लगती है । जीवन के सत्य की छोटी-छोटी घटनाएं और दृश्‍य लोक नाट्य नाचा में खुशबू की तरह समाए रहते हैं । चर्चित कथाकार डॉ. परदेशी राम वर्मा कहते हैं- छत्तीसगढ चुप्पे लोगों का अंचल है और वह अपनी चुप्पी जिन माध्यमों से तोड़ता रहा है, उनमें सबसे सशक्त माध्यम नाचा है । अंचल की कल्पना शीलता का अद्भूत लोक मंचीय विस्तार है नाचा ।


यह तो हुई नाचा के दृष्‍टा और साक्षी मनीषियों की राय । लेकिन स्वयं नाचा के कलाकारों से पूछें तो वे नहीं बता सकते हैं कि नाचा आखिर क्या है ? वे बताने में नहीं दिखाने में माहिर है । साहित्य का इतिहास साक्षी है कि राम को भगवान मानकर स्तुतिगान करने वाले महर्षियों से ज्यादा भगवान का वास्तविक हाल उनका वह अभिन्न दास समझता है, जो अपना कलेजा चीरकर बता देता है - भगवान उसके लिए क्या है ? ठीक वैसे ही नाचा के विनम्र कलाकार मंच पर अपना हृदय चीरकर बता देते हैं कि देखो नाचा ये है ।

नेमीचंद जैन कहते हैं - रंगमच कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जिसमें मनोरंजन का अंश अन्य कलाआें की तुलना में सबसे अधिक है । रंगकला हमारे आदिम आवेगों और प्रवृत्तियों को जागृत कर उन्हें एक सामूहिक सूत्र में बांधती है । नि:संदेह कश्मीर से केरल और कच्छ से कामरुप अंचलतक फैली हमारी रंगारंग नाट्य परंपरा विशाल, समृद्ध और जीवन्त है । उनमे विविधता के बावजूद मौजूद एक अंर्तसूत्र उनको एक अटूट रिश्ते से जोड़ता है । डॉ. मधुर लिखते हैं कि ईसापूर्व तीसरी शताब्दी का भरत नाट्य शास्त्र कोई आकस्मिक उपज नहीं, वरन् पूर्व पंरम्‍परा को लेकर की गई एक निश्चित योजना है । समुन्नत नाट्यकला की आधारशीला लोक जीवन में व्याप्त गीत और अभिनय की लोक शैलियां ही है । देश के विभिन्न प्रादेशिक लोकनाट्यों के अतिरिक्त कुछ ऐसी रंग शैलियां भी हैं जो अपने सीमित अंचलों में जन रंजन का माध्यम है । जैसे बंगाल में कीर्तनिया, उड़िसा में गंभीरा, महाराष्‍ट्र में गोंधल वैसे ही छत्तीसगढ में नाचा है ।

स्पष्ट है कि नाचा किसी काव्य की तरह केवल शाबदिक अभिव्यक्ति नहीं है, न वह किसी चित्र या मूर्तिकला की तरह काल की बाहुओं में कैद कोई स्थिर रुप है । वह तो गतिशील झरने की तरह लोक जीवन की अनुभूतियों को, आवेग, आकांक्षाओं और सपनों को सहज सादगी से अभिव्यक्ति देने वाला जीवंत मंच है ।

अशिक्षित या अल्पशिक्षित मगर पारखी नजर वाले नाचा के कलाकार आम तौर पर खेतिहार मजदूर होते हैं । अपने जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने के लिए स्वयं अपनी समझबूझ के अनुसार छोटे-छोटे प्रहसन रचते है, सामूहिक रुप से रिहर्सल करते हैं । निर्देशक नाम का कोई निर्दिष्ट व्यक्ति नाचा में नहीं होता । न ही उनकी कोई लिखित स्क्रीप्ट होती है । सब कुछ परस्पर सामंजस्य और साझेदारी में मौखिक रुप से चलता है । कई चुटीले और सटीक संवाद तात्कालिक रुप से मंच पर भी बनते चले जाते हैं । ठेठ मुहावरों और पैनी लोकोक्तियों के सहारे हास्य व्यंग्य से ओतप्रोत संवादों को सुनकर दर्शक समूह हंस-हंस कर लोट-पोट हो ही जाता है, मगर हास्य के बीच कोई ऐसी विद्रूपमय स्थितियां सामने आ जाती हैं कि दर्शक तय नहीं कर पाता कि वह हँसे या रोये ।
नाचा अपने आप में एक टोटल थियेटर यानि परिपूर्ण नाट्य शैली है । उसमें उन्मुक्तता, चित्रण, रंगरचना तथा दृश्‍यविधान में यथार्थता के साथ-साथ दर्शकों की कल्पनाशीलता को साथ लिए चलने पर बल अधिक समाहित रहता है । अभिनेता और दर्शक वर्ग के बीच घनिष्ट संबंध इसकी दूसरी मौलिक विशेषता है । नाचा में जीवन की मौलिक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों को जोडे रहने की गुंजाइश बराबर बनी रहती है । अपने गम्मतों की माध्यम से कलाकार दैनंदिनी जीवन की विद्रुपताओं और समस्याओं पर कटाक्ष एवं व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां करते चलते हैं । सूक्ष्म हास्य बोध की अपनी इसी प्रतिभा के बल पर स्वयं पर भी हँसने में सक्षम ये जीवट ग्रामीण कलाकार तमाम विपरीतताओं के बीच आज अपनी अस्मिता के साथ तनकर खड़े हैं । मंच पर इनका इम्प्रोवाइजेशन - प्रत्युत्पन्नमति की अद्भूत क्षमता देखकर थियेट्रिकल जगत हैरान है ।



नाचा का यह एक और उल्लेखलीय पहलू है कि बिना किसी संस्थागत प्रशिक्षण के लगभग सारे कलाकार गायन, वादन, नृत्य, अभिनय एवं रुप सज्जा से लेकर नाचा से संबंधित हर काम कर लेने में सिद्ध हस्त होते हैं । नाचा जैसा आडम्बरहीन मंच ढूंढना मुश्किल है । ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध कोई भी भूखंड इनका मंच होता है । यहां पाल परदे पखवाइयां जैसे तामझाम की कोई दरकार नहीं होती । साजिन्दों के बैठने के लिए साधारण सा तख्त मिल जाय तो बहुत है । अंगराग के लिए सफेद, पीली, छुई, खड़िया, हल्दी, कुंकुम, काजल, मिट्टी, कालिख, नीला थोथा, मुरदार शंख जैसी सामान्य सुलभ वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं । सारे कलाकार पात्रानुकुल अपना मेकअप स्वयं करते हैं । मंच में तख्त पर संगतकार बैठते हैं और मंच के तीनों ओर दर्शक वर्ग, जो देर रात से शुरु होने वाले नाचा को सुबह की लाली तक पुरी उत्कंठा और सहज मुग्धता से देखता है और छक कर आनंद लेता है ।

नाचा की समूची प्रस्तुति एक थिरकन और लयबद्धता के आरोह-अवरोह से बंधी होती है । कलाकारों की मुद्राओं में हलचल और भावाभिव्यक्तियों में, अभिनय नृत्य और अदाकारी में एक सहज लयबद्धता केवल देखने और महसूस करने की चीज है । नृत्य गीत कब खत्म होकर गम्मत में परिवर्तित हो जाता है, गम्मत की कब नृत्य गीत में स्वयमेव ढल जाता है तथा कभी-कभी नृत्य गीत और अभिनय चक्रवात की तरह कैसे एक रस और परस्पर आलिंगित होकर धूम मचा देते हैं - यह नाचा देखकर ही जाना जा सकता है ।

नाचा में महिला पात्रों का निर्वाह पुरुष ही करते हैं । पुरुष ही परी बनते हैं । नचकहरीन और लोटा लिए नजरिया की भूमिका पुरुष ही निभाते हैं । इनकी अदाएं, हावभाव, चालढाल और भावभंगिमाएं इतनी अधिक स्त्रीसुलभ कोमलता और मोहकता के करीब होती है कि शिनाख्त करना मुश्किल होता है । नाचा में परी और जोक्कड़ दो ऐसे अदभूत चरित्र हैं- जिनकी परिकल्पना का निहितार्थ भौंचक कर देता है । परी और जोक्कड़ के वेश विन्यास और रुप सज्जा में कलाकार अपनी पूरी कल्पना शक्ति उड़ेल देते हैं । परी इनके लिये सर्वश्रेष्ठ रुप सौंदर्य और मानवीय सम्मोलन की जीती जागती मिसाल है । उसमें आसमान में उड़ने वाली परी की तरह अलौकिकता का भी हल्का सा स्पर्श रहता है । दर्शक रस विभोर होकर परी की तरह अलौकिकता पर, उसकी लचक और नजाकत पर शुरु से आखिर तक फिदा होकर मुजरे लुटाता है । नाचा का जोक्कड़ निरंजन महावर के शब्दों में सर्कस के जोकर, संस्कृत नाटक के विदूषक या अंग्रेजी नाटक के क्लाउन की तरह नही है । नाचा का वह सर्वाधिक मुखर और जीवन्त चरित्र होता है । वह हंसाता है, मनोरंजन करता है, हास्य विनोद की सृष्टि बड़ी सहजता से करता है । पर वह इतना ही नहीं होता । जोक्कड़ छत्तीसगढी नाचा की सम्पूर्ण अस्मिता और अवधारणा के निचोड़ का जीता जागता प्रतीक है । परी और जोक्कड़ ही ऐसे चुम्बकीय चरित्र हैं जो रात-रात भर दर्शकों को बांधे रखने के रहस्य को साथ लिए रहते हैं ।

ब.व. कारन्त कहते थे कि लोक नाट्य का सीधा सादा अर्थ है वह लोगों के साथ रहा है और सदा रहेगा । नाचा के अपने मूल स्वभाव में देहाती जनता के दैनिक जीवन, सुखदुख, आशा आकांक्षा हास्य उल्लास और आँसू तथा निराशा का एकांतिक एवं परिवेश के प्रति सहज जागरुकता और उसकी बेलाग अभिव्यक्ति देखी जा सकती है । बाल विवाह को रोकने, विधवा विवाह को प्रचलित करने, छुआछूत की भावना का उन्मूलन करने , उँचनीच पर आधारित शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने में नाचा ने कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई । असहयोग आंदोलन के दिनों में अछूतोंद्धार पर आधारित प्रहसन जमादारिन और स्वतंत्रता के आसपास के दिनों में विधवा विवाह पर मुंशी-मुंशइन नाम से खेले जाने वाले नाटक नाचा की चर्चित प्रस्तुतियां है । आज भी निरक्षरता और कुष्ठ उन्मूलन जैसे अन्य कई ज्वलन्त विषयों को लेकर अनेक नाचा मंडलियों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय बखूबी दिया है और दे रहे हैं ।

नाचा का लोक मंचीय रुप आज जिस मुकाम पर है, वहां से हम पीछे मुड़कर देखते हैं- तो जहां तक हमारी द्यिष्ट जाती है, इसका स्वरुप ऐसा ही नहीं था जैसा कि वह आज है । अपने युग और परिवेश की बदलती तस्वीर की छाया स्वभावत: उस पर पड़ती है । एक युग था जब बिजली की व्यापक सुलभता नहीं थीं । मशाल की रोशनी ही मंच का सहारा थी । माइक की व्यवस्था का भी सवाल ही नहीं था । गिने चुने वाद्यों में केवल चिकारा, मंजीरा और तबला जिसे कमर में बांधकर कलाकार खड़े-खड़े ही बजाया करते थे । खड़े साज के नाम से परिचित इस नाचा की शुरुआत ब्रम्हानंद के भजनों से होती थी । मंडई मेलों में, पर्वो, त्यौहारों में इस खड़े साज की अपनी लोकप्रियता थी ।

फिर धीरे-धीरे मशाल की जगह गैस बत्ती ने ली ली । कुछ अतिरिक्त वाद्यों को शामिल किया गया । ढोलक और हारमोनियम के शामिल हो जाने से नाचा के आकर्षण में वृद्धि हुई । हारमोनियम मास्टर नाचा पार्टी के मनीजर कहलाने लगे । कई प्रसिद्ध नाचा पार्टियां इसी दौर में सामने आई । गुरुदत्त की नाचा पार्टी, मदरा जी दाउ की रिंगनी खेली साज जिसमें ठाकुर राम, भुलवा, लालू, मदन जैसे अनमोल रत्न शामिल थे, धरम लाल कश्यप की नाचा पार्टी आदि । उन दिनों इन नाचा पार्टियों की खूब धूम थी । इसी दौर में फिल्मी चाल चलन, ढंग, और द्विअर्थी संवादों का चलन भी खूब बढा । यह नाचा में परस्पर प्रतिस्पर्धा, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने का दौर था ।

इसी बीच लगभग सत्तर के दशक में छत्तीसगढ की सांस्कृतिक धरती पर नाचा के समान्तर कुछ अनूठे लोक मंचीय प्रयोग हुए । दाउ रामचन्द्र देशमुख जी एवं दाउ महासिंह चंद्राकर जी जैसे समर्पित, संपन्न और जुनूनी कला साधकों ने क्रमश: चन्दैनी गोंदा और सोनहा बिहान जैसी युगांतरकारी छत्तीसगढी - मंचीय प्रस्तुतियां दीं, जिनकी उपलब्धियां अब अंचल के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर बन चुकी है । इन प्रस्तुतियों की आतंककारी भव्यता और चकाचौंध के समान्तर श्री हबीब तनवीर का एक अलग ही किस्म का लोक मंचीय प्रयोग चलता रहा । हिन्दुस्तानी थियेटर फिर नया थियेटर के बैनर पर छत्तीसगढी नाचा के कलाकारों, वाद्यों, गीतों एवं बोली को कच्चे माल की तरह अपने ढंग से अपनी प्रस्तुतियों में उन्होंने इस्तेमाल किया और अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा सुनियोजित व्यूहरचना के तहत राष्ट्रीयता-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी । प्रसिद्ध सोवियत नाटककार आर्बुजोफ ने कहा है- रंग मंच का मूल तर्क है प्रतीकात्मकता और सादगी । उसे चकाचौंध और भव्यता का प्रर्याय बना देना - रंग मंच अंतर्निहित तर्क को ही परास्त कर देना है । मेरी अपनी समझ में आर्बुजोफ की यह अवधारणा ही तनवीर जी की तमाम लोकमंचीय प्रस्तुतियों में अंतनिर्हित व्याकरण का आधार है - जिसे दर्शकों से ज्यादा पराक्रमी नाट्य समीक्षकों ने उनकी प्रस्तुतियों को सराहा और आसमानी उँचाइयाँ दी, जहाँ नाचा नाम का ध्वज भी फहराता हुआ दिखाई दे जाता है । अस्‍तु --

जो भी हो, कुल मिलाकर आशय यही है कि आज नाचा लोक नाट्य अपने विविध रुपों में पूरी उर्जा शक्ति और प्रभाव को लिए युग के साथ कदम मिलाता प्रवहमान है । छत्तीसगढी लोक संस्कृति की यह पयस्विनी किस सागर में समायेगी - कौन कह सकता है । हम केवल कामना कर सकते हैं कि नाया की यह आत्मीय तरंगिनी तब तक प्रवाहित रहे, जब तक इस अंचल के लोक जीवन में स्पन्दन है ।

रामहृदय तिवारी, आदर्श नगर, दुर्ग

टिप्पणियाँ

  1. sanjeeva bhai,
    nacha par achchhi posting ke liye dhanyawad.
    prof. ashwini kesharwani

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  2. बहुत सारा बात महू ला नही पता रीहीस। मजा आ गे।

    ये केशरवानी जी ला यहाँ देख के मन प्रसन्न होगे। उम्मीद हवे वोखर ब्लाग जल्दी ही धूम मचाही।

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  3. पुनः एक नई जानकारी भरी इस पोस्ट के लिये आभार. आपके ब्लॉग से छत्तीसगढ़ में हो रही हर गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती है, जो कि अन्यथा संभव नहीं.
    साधुवाद.

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  4. आपने इस रेशमी नगर कि छटा ही बिखेर दी...अच्छा लिखा है

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  5. बहुत ही बढ़िया!!

    बहुत सी नई जानकारियां मिली!!

    तिवारी जी का लेखन पसंद आया!!

    नाचा एक बार ही देखने का मौका मिला है, रात कैसे बीती सुबह की लालिमा कब आ गई पता ही नही चला था!

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  6. उत्कृष्ट. ब्लॉग लेखन का सही प्रयोग है इस प्रकार की जानकारी युक्त पोस्ट.
    नाचा के कुछ दृष्य मिल पायेंगे क्या?

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  7. सराहनीय प्रस्तुति अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद

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  8. BAHUT HI LABHPRAD..LEKH AAPNE BHEJA ..MAI AAPKO KIS PRAKAR DHANYAWAD DU..? DIL SE MAI AABHARI HU..TIWARI JI..

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