दुर्लभ दर्शन और मौन सम्वाद : अशोक सिंघई की दो कवितायें सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

दुर्लभ दर्शन और मौन सम्वाद : अशोक सिंघई की दो कवितायें


दुर्लभ दर्शन

दिखता नहीं अब
चाँद पूरा साफ-साफ
आँखें हो चलीं बूढ़ीं

अपने मन से बह रही हो
हवा ऐसी दिखती नहीं अब
खुश़बू हो गई लापता
बातें हो चलीं झूठीं

कहाँ है अब कोई जो चल रहा हो
कारवाँ ऐसा दिखता नहीं अब
मंज़िल हो गये किस्से तिलस्मी
रातें हो चलीं जूठीं

सदी की सदी / सरक रही है
व्यग्रता ऐसी
प्रयासों की दिखती नहीं अब
साक्षात्कार सूरज का कहाँ नसीब
साँसें लग रहीं रूठीं

मौन सम्वाद

तुमने कहा मुझसे
मत टोको मुझे, मत रोको मुझे
कह-कह कर ऐसा
की अपनी मनमानी
मेरे हिस्से आया मौन
कल तक बँधी थी पट्टी आँखों पर
अब ताला है मुँह पर

कुछ सुन लेतीं मेरी भी
नहीं, कुछ खास नहीं है कहने को
तुमको ही टाल नहीं पाता कभी
तुम्हारा कहना जरा सा
बड़ा भारी लगता है
जैसे हो बारिश सीने पर दिसम्बर के
कम भासती है लू, मई के महीने में
मत कहो, कम से कम
तुम तो मत ही कहो

अँगुली उठाती हो
हवा की इस थिरकन से
मैं लगता हूँ समाने धरा की कोख में
गिर जाता हूँ उस नज़र से
देखता हूँ खुद को जिस नज़र से

प्रेम ने ही बाँधी थी कभी आँखों पर
सम्बन्धों में भी कुछ शर्त होती है
कितनी भी ठोस क्यों न हो जिन्दगी
सिद्धान्त, विचार, आदर्श और अनुभूतियाँ
सब में पर्त होती है

खुशी से दिन बीता
बीती शाम कहकहों में
सुबह नज़र आते ओस, कहते
रोना भी है जिन्दगी में
दृष्टि इतनी सबल है
ध्वनि को कष्ट मत दो
दो, मुझे मौन दो
जिन्दगी की कौंध दो
न हो ध्वनि तदुपरान्त

मुझे मौन से
प्रेम दो, मौन दो
मौन से

टिप्पणियाँ

  1. सिंघई साहब से एक बार की ही लेकिन बड़ी अच्छी मुलाकात की तमाम यादें हैं....अच्छी कविताएँ हैं य़े। उन तक मेरी अभिवादन पहुँचा दें।

    जवाब देंहटाएं
  2. अशॊक जी को पढ़कर आनन्द आ गया. प्रस्तुति के लिये आभार.

    जवाब देंहटाएं
  3. निश्चित ही बेजोड़ कविता है… खासकर मौन सम्वाद,
    अशोक जी को मेरा साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. दोनो ही कविताएं पसंद आईं!!

    शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  5. संजीव जी दोनो ही कवितायें बेजोड़ है बहुत खूबसूरत शब्दों का समावेश! अच्छा लगा पढकर...
    विषेशकर मौन सम्वाद बहुत अच्छी लगी..

    सुनीता(शानू)

    जवाब देंहटाएं
  6. अच्छी बेजोड़ कविताएँ ...

    पढ़कर आनन्द आया
    विषेशकर मौन सम्वाद |

    आभार.

    जवाब देंहटाएं
  7. मुझे मौन से
    प्रेम दो, मौन दो
    मौन से
    बहुत सुन्दर मौन अभिव्यक्ति !

    जवाब देंहटाएं

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