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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

क्‍या आप भी हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करते हैं ? : प्रेरणा

बात सन् 1989-90 की है मैं तब रायपुर में श्री राम होण्‍डा ग्रुप में पोर्टेबल जनसेट्स के मार्केटिंग फील्‍ड में नौकरी ज्‍वाईन कर लिया था । वहां मैं इंस्‍टीट्यूशनल सेल्‍स देखता था । उस वर्ष हमारे टीम के प्रयास से हमारे रीजन छत्‍तीसगढ-उडीसा में देश के अन्‍य रीजनों से सर्वाधिक जनसेट्स की बिक्री का रिकार्ड कायम हुआ ।
कम्‍पनी के द्वारा हमारे डीलर एवं हमारे टीम के प्रत्‍येक सदस्‍य को होटल मयूरा में इनाम के साथ ही प्रशश्ति-पत्र भी प्रदान किया गया । मैं इस प्रोत्‍साहन से बहुत प्रभावित हुआ । दूसरे दिन दो दिन की छुट्टी लेकर अपने गांव गया अपने उत्‍साह को मां बाप के आर्शिवाद से अक्षुण बनाने के लिए ।

गांव जाकर मां बाप के सामने अपने पुरस्‍कारों को रखा । मेरी मां इनाम में मिले ब्रीफकेस को देखने लगी तो मेरे पिताजी मेरे प्रशश्ति-पत्र को अपने मोटे चश्‍में से निहारने लगे । पिताजी अंग्रेजी में लिखे शव्‍दों का अक्षरश: अर्थ बताते हुए आखरी में आकर ठिठक गये । देर तक प्रशश्ति-पत्र को निहारते रहे फिर बोले
“ये दू झन के दस्‍खत काबर हे जी ।“
प्रशश्ति-पत्र के नीचे में श्रीराम ग्रुप के इंडियन डायरेक्‍टर और होण्‍डा ग्रुप के जापानी डायरेक्‍टर का हस्‍ताथर था । मैंने उन्‍हें इस ज्‍वाइंट वेंचर के संबंध में बताया । पर वे संतुष्‍ट नहीं हुए फिर बोले
“पर येमा तो होण्‍डा वाले हा जापानी में दस्‍खत करे हे जी ।“
मैंने सहज भाव से उत्‍तर दिया
“हां काबर कि वो ह जापानी ये तेखर सेती विदेशी भाषा में दस्‍खत करे हे ।“
“त तोर श्री राम वाले ह कोन मार देशी भाषा में दस्‍खत करे हे ।“ पिताजी नें कहा ।

मेरा सारा उत्‍साह उस शव्‍द नें क्षण भर में उतार दिया । मैंनें पिताजी से वो प्रशश्ति-पत्र लगभग छीन सा लिया । देखा, एक तरफ जापानी होण्‍डा कम्‍पनी का र्निदेशक जापानी भाषा में हस्‍ताक्षर किया था और दूसरी तरफ भारतीय र्निदेशक अंग्रेजी में हस्‍ताक्षर किया था ।

दो दिन गांव में रहा दोनों दिन में जब भी पिताजी से सामना हुआ मुझे बिनावजह आत्‍मग्‍लानी सा महसूस होता । मन में विचार कुलबुलाते रहे कि एक जापानी सात समुंदर पार भारत में आकर भी अंग्रेजी भाषा के मजमून पर हस्‍ताक्षर करता है तो अपनी भाषा में और हम हैं कि मजमून भी विदेशी भाषा में लिखते हैं और हस्‍ताक्षर भी विदेशी भाषा में करते हैं । हमारा कोई अस्तित्‍व नहीं है हमारी कोई निजी पहचान नहीं है उधारी का मान सम्‍मान उसमें भी शान ।

उस दिन के बाद से मैने हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करने का निश्‍चय किया । मैं जब भी हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करता हूं मुझे आनंद की अनूभूति होती है और तब तो मेरी अनुभूति और बढ जाती है जब अंग्रेजी में लिखे गये पत्रों में, मैं जब हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करता हूं ।
क्‍या आप भी करते हैं अपनी भाषा में हस्‍ताक्षर ?


(ब्‍लाग से ही ज्ञात हुआ कि भाई रवि रतलामी जी भी हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करते हैं मेरा प्रणाम स्‍वीकारें उनके अतिरिक्‍त उन सभी हिन्‍दी हस्‍ताक्षर कर्ताओं को मेरा सलाम ।
आपने मेरे इस आनंद अनुभूति को जीवंत रखा है।)

टिप्पणियाँ

  1. मैं भी हिन्दी में दस्कत करता हूं

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  2. मैं भी पिछले बारह वर्ष से हमेशा हिन्दी में ही हस्ताक्षर करता हूँ। ऐसा करने का संकल्प कर रखा है और भूल से भी कभी अंग्रेजी में हस्ताक्षर मुझसे नहीं हुआ। इस तरह का संकल्पकरने का अवसर वर्षों पहले राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डनजी के जन्म दिन के अवसर पर नई दिल्ली के हिन्दी भवन में आयोजित समारोह में मिला। अटल बिहारी वाजपेयी जी उस समारोह के मुख्य अतिथि थे और मैं संवाददाता के तौर पर अपने अख़बार के लिए उस समारोह को कवर करने गया था। उस समारोह में उपस्थित व्यक्तियों ने हमेशा हिन्दी में ही हस्ताक्षर करने का संकल्प लिया था। संकल्प पत्र पर सबसे पहले मैंने हस्ताक्षर किए थे और उसके बाद अटल जी ने हस्ताक्षर किया था। मैं उस संकल्प पर तब से कायम हूं लेकिन अटल जी प्रधानमंत्री बनने के बाद उसे निभा नहीं सके। वह अंग्रेजी के पत्रों पर अंग्रेजी में और हिन्दी के पत्रों पर हिन्दी में हस्ताक्षर करने लगे।

    कम से कम अपना हस्ताक्षर अपनी लिपि में करने का अख्तियार सबको है और इससे हस्ताक्षर की अपनी विशिष्ट पहचान भी बनती है, जो कि हस्ताक्षर का प्रयोजन भी है।

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  3. अपन भी हिन्दी में ही करते हैं जी :)

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  4. मैं अपना नाम हिन्दी (देवनागरी लिपि) में ही लिखता हूँ, चाहे फॉर्म अंग्रेजी में ही क्यों न हो। हस्ताक्षर तो सिर्फ हिन्दी में ही।

    भारत सरकार के गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के अ.शा.पत्र सं.I/14011/01/2003-रा.भा.(नीति-1) दिनांक 15 सितम्बर, 2003 के तहत समस्त केन्द्रीय सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों को सभी दस्तावेजों पर, यहँ तक कि अंग्रेजी में लिखे गए पत्रों पर भी हिन्दी में हस्ताक्षर करने के निदेश जारी किए गए हैं।

    किन्तु लोग यथासंभव अनुपालन करते हैं, पूरी तरह नहीं।

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  5. दोस्‍त मैं तो स्‍कूल के ज़माने से ही हिंदी में हस्‍ताक्षर करता हूं और करता रहूंगा ।

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  6. मुझे यह पढ़कर अपने आप पर शर्म आ रही है!!

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  7. मै भी बहुत शर्मिंदा हूँ मगर अब यदि हिन्दी में चेक बुक पर साईन करेंगे तो चलेगा नही...मगर कोशिश करेंगे ज्यादा से ज्यादा हम हिन्दी में साईन करें...

    सुनीता(शानू)

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  8. :) सही है। लोगों को शर्मिंदा करो।

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  9. मैं किसी विदेशी भाषा में दस्तखत नहीं करता पर हिन्दी में करना है बोल के मुझे पता नहीं था :)

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