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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

एमबीसियस गर्ल

छोटे शहरों के सितारा होटलों में बडे बडे चोचले के साथ ही रिशेप्‍शन के अतिरिक्‍त प्रोफेशनल लेडीज स्‍टाफ रखने का चलन अब बढता जा रहा है खासकर हाउसकीपिंग व किचन डिपार्टमेंटों में जहां अब तक एक्‍का दुक्‍का ही महिला स्‍टाफ रहते थे वहां इनकी संख्‍या में इजाफा होते जा रही है । वो इसलिए कि अब प्रदेश स्‍तर पर भी होटल व रेस्‍टारेंट के प्रशिक्षण संस्‍थान खुलते जा रहे हैं जहां से नयी नयी एम्‍बीसि‍यस विथ स्‍मार्ट गर्ल्‍स ट्रेनिंग लेती हैं और लोकल लेबल पर इन होटलों में ज्‍वाईन कर लेती हैं । कभी कभी एकाध माह दिल्‍ली मुम्‍बई के होटलों में काम कर के भी लडकियां वापस आ जाती हैं और लोकल लेबल पर ज्‍वाईन कर लेती हैं ।

अब ऐसी दिल्‍ली मुम्‍बई रिटर्न लडकी और उसका एम्‍बीसि‍यस होना हमें बहुत सालता है । धीरूभाई हैं कि रोज आते हैं और कहते हैं फलाना जी मिस ढेकाने को ढंग से काम सिखाईये ये वेलकम ग्रुप में काम कर चुकी हैं और ली मेरेडियन ज्‍वाईन करने वाली थी हमने रिक्‍वेस्‍ट कर के इन्‍हे ज्‍वाईन करवाया है । कहते तो ऐसे हैं जैसे हमें ही कह रहे हों कि आप ही सीखें ये तो सीखी पढी है । दिखने में भी वैसेईच लगती है ।

हम ठहरे ठेठ छत्‍तीसगढिया, सोंचते हैं जइसे ठेठ बिहारी लालू जी रेल मंत्रालय अपने स्‍टाईल में चला रहे हैं वैसे ही हम इस धरमशाला को चलायेंगे चाहे अंग्रेजी मेम आये कि जर्मनी के बाबू । यहां छत्‍तीसगढ में तो हम राजा हैं हमारी मेहरारू कहती है वा जी किसी भी शहर में चले जाओ आपके चेले होटल में नजर आ ही जाते हैं । हम हैं ही खानदानी ट्रेनिंग इंस्‍टीट्यूट, स्‍टार रेटिंग हमने लिया ही इसीलिए है चार महीना सीखों रूम में गेस्‍ट के लिए रखे लेटर पेड चुराओ टायपिंग इंस्‍टीट्यूट से एक्‍सपीरियंस सर्टिफिकेट बनाओ खुद दस्‍खत करो और चढ जाओ बेबीलोन में । पर ये एम्‍बीसि‍यस गर्ल जबसे आई है हमारी मति को अपने पांच इंची हिल वाली सैंडिल के टप टप से बहुतै भरमाती है ।

अब धीरूभाई नें भर्ती किया है इस कारण हम इनकी सैंडल का ही नाप जानने पर विश्‍वास रखते हैं ज्‍यादा कुछ नहीं । दूसरी बात दिलवालों की दिल्‍ली के ली मेरेडियन से आयी है तो कुछ तो मान रखना ही पडेगा । जब हमें रिपोर्ट देने, तराशे गये टखनो व पिंडिलियों को ढकने का प्रयत्‍न करते सोबर स्‍कर्ट और शरीर को भरपूर कसती हमारे मोनो वाली कमीज में फाईलों को अपने सीने में दबाये हमारे सामने खडी होती है तब मन तो ये करता है कि काश मैं फाईल होता । चश्‍मों को अपने सहीं जगह में बैठाते हुए उसकी बातें सुनता हूं । दिल्‍ली के गलियों और वहां रहने वालों के बारे में पूछता हूं कि शीला दीक्षित जी से मिली हो क्‍या, वहां चाय का क्‍या क्‍या ट्रेंड चल रहा है, कोई कवि संम्‍मेलन सुनी हो कि नहीं आदि आदि । और बातें खत्‍म कर फाईलों को वेवजह अपने टेबल में रखवा लेता हूं कि थोडी देर बाद देख कर दूंगा । उसके जाने के बाद इत्मिनान से फाईलों को नाक के सामने ले जाकर रामदेव के चेले की भांति लम्‍बी लम्‍बी सांस लेते हुए उसके डियोडरेंट का ब्रांड जानने का प्रयत्‍न करता हूं ।

पर एमबीसियस गर्ल ब्रांड का पता चलता ही नहीं । काम करने में तेज हो कि ना हो बातों में बडी तेज है रूमसर्विस सम्‍हालती है । कहती है सर रूमसर्विस और हाउसकीपिंग का काम तो मेरे घर सम्‍हालने जैसा है जैसे हम अपने कमरे सजाते हैं वैसे ही रूम सजाना है और धीरे धीरे मेरे धरमशाले के साथ साथ अपना घर भी कमीशन पेटे सजाने लगी है । रिसपांसिबिलिटी नाम की चिडिया किसे कहते हैं उसे मालूम ही नहीं दिन भर हाहा, हीही तो उससे समय बच गया तो मोबाईल में चिपकी रहेगी । रूम से फोन की घंटी पे घंटी बज रहे हों पर मैडम का मोबाईल ज्‍यादा जरूरी है । ऐसे में गेस्‍ट का शिकायत आना लाजमी है । पर कभी गेस्‍ट की शिकायत आई नहीं कि अपने झील सी आंखों में रहस्‍यमय भाव लिये हमारी सहानुभूति प्राप्‍त करने की मुद्रा में हमारे सामने खडी हो जाती है और कहती है सर जमाना खराब है गेस्‍ट जबरन शिकायत कर रहा है । इसीलिए तो मम्‍मी होटल में नौकरी करने से मना करती है । अरेरेरे मैं वारी जांवा कुडिये ।

ऐसे समय में कभी कभी धीरूभाई भी हमारे पास आना चाहते हैं तो हम झटपट वेटर भेजकर लिफ्ट को टाप फ्लोर में भेजकर दरवाजा खुलवा देते हैं । अब बुलाते रहो, एक दो बार बटन दबाते हैं फिर उत्‍साहे में “हफरते हफरते” फलोर पे फलोर चढते जाते हैं । मिस ढेकाना के अभिवादन एवं मुस्‍कान से उनका सारा श्रम काफूर हो जाता है ।

धीरूभाई भी पसीज जाते हैं उसकी अदा पर । वो ठहरे बुजुर्ग आदमी हमारी एमबीसियस गर्ल ठहरी तब्‍बू जी सी कम उम्र वाली, उसे मैंनेजमेंट हेल्‍प नहीं करेगा तो कौन करेगा । सचमुच में आज कल के गेस्‍ट साले बदमास हैं अमूल के फेमस प्रोडक्‍ट पहन कर लाबी में भी निकल जाते हैं और मना करो तो गलती गिनाने लगते हैं । बेचारी का ध्‍यान रखा करो अब जमाना बदल गया है । गाहे बगाहे स्‍कर्ट से पिंडिंलिंयां झांकती हैं और सारा मैंनेजमेंट उसकी तरफ हो जाता है ।

मैं लाख कोशिस करता हूं हिम्‍मत कर के उससे रेजीगनेशन ले लूं पर जब भी हिम्‍मत करता हूं कोई ना कोई संवेदना का सहारा उसके पास रहता है और उपर से धीरूभाई ना निगलने देते ना उगलने देते ।

हमारी समस्‍या तो सुलझने के बजाय उलझती ही जाती है एक ही बात सत्‍य नजर आती है कुछ लडकियां अपने नादानी को बेहद भुनाती हैं ।
... और बॉस के चाय में कम तो अपने चाय में चीनी ज्‍यादा मिलाती हैं ।

टिप्पणियाँ

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  2. संजीव जी अच्छा प्रयास किया है आपने आज कल एसा ही होता है हर जगह लड़कियो का ही इस्तेमाल होता है हर ऑफ़िस मै या होटल में ज्यादातर लडकियाँ ही होती है वैसे तो लड़कियाँ ज्यादा मेहनती और इमानदार होती है मगर फ़िर भी कुछेक काम करती नही समय बर्बाद करती है...हँसी के साथ व्यंग्य भी अच्छा लगा...

    शानू

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  3. मुन्ना भाई उवाच--: ' मामू तुम तो गए काम से, अपुन अभी के अभी भिलाई आता है और मैडम को बताएगा कि देखो ये मामू रोज होटल इसलिए नई जाएला कि है कि इसको काम करने का मांगता है। ये होटल इस वास्ते रोज जाएला है कि "हमारे मोनो वाली कमीज में फाईलों को अपने सीने में दबाये हमारे सामने खडी होती है तब मन तो ये करता है कि काश मैं फाईल होता ।"

    मामू इसलिए रोज्जे होटल जाएला है कि "उसके जाने के बाद इत्मिनान से फाईलों को नाक के सामने ले जाकर रामदेव के चेले की भांति लम्‍बी लम्‍बी सांस लेते हुए उसके डियोडरेंट का ब्रांड जानने का प्रयत्‍न करता हूं ।"

    अब लगी तो लगिच लगी ना मामू'

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  4. "मैं लाख कोशिस करता हूं हिम्‍मत कर के उससे रेजीगनेशन ले लूं पर जब भी हिम्‍मत करता हूं कोई ना कोई संवेदना का सहारा उसके पास रहता है और उपर से धीरूभाई ना निगलने देते ना उगलने देते"

    सटीक लेख है।बधाई।

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  5. सही पहलू पर नजर गई आपकी. यही तो बदलते समय का रंग है और शायद बाजार की माँग भी. हास्य व्यंग्य का अच्छा मिश्रण, बधाई. जारी रहें.

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