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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

1857 का स्वतंत्रता संग्राम या 1857 का गदर

दो दिन पहले प्रगतिशील वसुधा के सम्पादक प्रगतिशील लेखक संघ के राष्‍ट्रीय महासचिव प्रो. कमला प्रसाद के “१८५७ की क्रांति और आज के प्रश्‍न” विषय पर व्‍याख्‍यान को सुनने गया उन्होने १८५७ की क्रांति के १५० वर्ष पूरे होने पर अपने रोचक व सारगर्भित व्‍याख्‍यान मे जो कुछ कहा उसमे से कुछ बाते देर तक दिमाग मे गूंजती रही ।

"१८५७ की क्रांति की जितनी चर्चा हो रही है, इतनी सजग चर्चा १९५७ को १०० वर्ष पूरे होने पर भी नहीं हुई ।"

"१८५७ की क्रांति से संबंधित पृथक पृथक मत आज भी बने हुए हैं कोई मानते हैं यह एक धर्म युद्ध था कुछ कहते हैं यह सामंती सभ्‍यता और अंग्रेजी सभ्‍यता के बीच का युद्ध था ।"

" . . . . . . कार्लमार्क ने इसे जनविद्रोह का नाम दिया । "

" . . . . . . . . . . . गदर !"

हमे संविधान पढाने वाले हमारे एक प्राध्यापक आदरणीय कनक तिवारी जी जो हिदायत्तुल्ला राष्ट्रीय विधि महाविद्यालय मे विजिटिंग प्रोफ़ेशर है कहा करते थे कि कालमार्क्स के ईसी कथन को अंग्रेजो ने गदर निरुपित कर दिया था । इतिहास को शब्द रूप मे लिखने वाले अंग्रेज ही थे जिंहोने भारतीय एकता को चिढाने के लिये हमारे स्वतत्रता संग्राम को " १८५७ का गदर" नाम दिया "गदर" हम पर थोपा गया शब्द है । भारत मे जब तक अंग्रेजो के लिखे स्कूली पुस्तको का हिंदी अनुवाद चलता रहा तब तक के पुस्तको में इसे " १८५७ का गदर" ही कहा गया । जबकि गदर एक असंगठित एवं निरुद्देश्य आपराधिक मार काट को कहा जाता है । वो अपने तर्को मे कहां तक सहीं है, मै आज तक समझ नही पाया पर जब जब १८५७ के स्वतत्रता संग्राम को "गदर" कहा जाता है दिल को एक चोट पहुंचती है ।

छत्तीसगढ मे इसी मार्क्स के अनुयायी आज नंगा नाच रहे है और जन विद्रोह का कुत्सित प्रयाश करते हुए पवित्र शब्द क्रांति को भुना रहे है । कभी हम भी कवि गदर के गीतो मे ढपली बजाते थे पर अब हमारे प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियो मे हमे घृणा होती है उन स्वर लहरियो से जिसे हम क्रांति के गीत कहते थे ।

टिप्पणियाँ

  1. पता नही पर शायद हम गदर शब्द का अर्थ क्रांति या विद्रोह लेते आए हैं।

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  2. और हां! आपके अंतिम पैराग्राफ़ से मैं पूर्णतया सहमत हूं!!

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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