नारद कुछ तो है पर सबकुछ नही है सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

नारद कुछ तो है पर सबकुछ नही है

हिन्दी चिट्ठाकारों की फौज कुल जमा 1000 जिसमें से सक्रिय चिट्ठे 500, पाठक इन्ही मे से संख्या अंजान, जिनके सहारे पूरा हिन्दी अंतरजाल संसार टिका है । विगत दिनो हिन्दी चिठ्ठो को बढाने के उद्देश्य से छत्तीसगढ मे मेरे द्वारा जो आंशिक प्रयाश किये गये उसमे यह बात खुल कर आयी कि भारतीय आग्ल चिठ्ठाकार यह सोचता है कि हम हिन्दी चिठ्ठाकार अपनी लेखनी को पढवाने के लिये हिन्दी व हिन्दी चिठ्ठाजगत की बात करते है क्योकि उनका चिंतन है हिन्दी चिठ्ठो के पाठक कम है और जो हिन्दी चिठ्ठा लिखेगा वो दूसरो के चिठ्ठो को पढेगा ही यदि उनकी बातो को माने तो हमारे पाठक सक्रिय चिट्ठे 500 के चिट्ठाकार ही है जो एक दूसरे के चिठ्ठो को पढते है यानी चटका लगाते है ।

हमारी जानकारी के अनुसार हिन्दी चिट्ठाकारों के मानक फीड एग्रगेटर दो हैं नारद महाराज व हिन्दी ब्लाग डाट काम इनके सहारे ही 500 ब्लाग के धमनियों में रक्त का प्रवाह हो पाता है । नारद महाराज के यहा विवाद के बावजूद यह देखने सुनने को मिलता है कि किसके व्लाग में कितना चटका लगा, यह चटका ही उस लेख की लोकप्रियता का आधार है । नारद में बाकायदा चटकों के रिकार्ड के साथ इस दिन, सप्ताह, माह, वर्ष के सर्वाधिक चर्चित चिट्ठों की सूची ‘लोकप्रिय लेख’ उपलव्ध कराई जाती है । जो नारद से होकर गुजरने वाले पाठकों के आधार पर होती है । . . . . और नारद को कौन देखता है, स्वाभाविक तौर पर वही जो हिन्दी व्लागिंग करता है और नारद में पंजीकृत है । तो क्या नारद से होकर चटका लगने को ही उस लेख की लोकप्रियता की कसौटी माना जा सकता है । खैर नारद जाने व उसके तारनहार जाने । श्रृजन शिल्पी के कहने पर लेखों के सामने दर्शित हिट्स की संख्या को हटा दिया गया वैसे ही नित नये प्रयोग होते रहेंगे ।

नारदहिन्दी ब्लाग के सहारे आने वालों के अतिरिक्त भी हिन्दी चिट्ठाकारों के चिट्ठों में आने के दूसरे रास्ते भी हैं जो विभिन्न सेवाप्रदाताओं द्वारा समान विचारधारा वाले व्यक्तियों के समूह और चिट्ठाकारों के व्यक्तिगत संबंधों से निर्मित होते हैं जो बिना किसी फीड एग्रीगेटर के माध्यम से स्वमेव ही चिट्ठे में विचरण करते हैं और चिट्ठों को पढते हैं । इस संबंध में विस्तृत चर्चा श्री रवि रतलामी जी पूर्व में भी कर चुके हैं । ऐसी स्थिति में लोकप्रियता की कसौटी के मानक चटके सही प्रतीत नही होते ।

हमारे जैसे अल्प ज्ञानी चिट्ठाकार अपनी दो टूक बाते कहने के लिए लम्बी लम्बी लेखनी लिखता है बार बार वही बात कहता है जो चिट्ठे का सार है, इस प्रकार चिट्ठा लम्बा होता जाता है पर चटके व टिप्पणियां दो चार से ज्यादा नही चिपक पाते । वही परमजीत बाली जी एवं मेरा चुंतन वाले सन्तोष जी जैसे शव्दों के शिल्पी चार लाईनों में ही अपनी पूरी बातें कह जाते हैं और उन पर चटका भी खूब लगता है व टिप्पणियां दस से ज्यादा चिपक जाते हैं, क्यू न लगे इससे पाठक को और भी चिट्ठों को पढने का समय भी मिल जाता है ।

रवि रतलामी जी नें पिछले दिनों विश्व के सर्वाधिक चर्चित २५ चिट्ठों के संबंध में लिखा था मैं उन चिट्ठों में से पहले क्रम के चिट्ठे पर गया तो देखा उस दिन के उक्त विश्व के महत्वपूर्ण चिट्ठे के पोस्ट में एक भी टिप्पणी नही की गयी थी उसमें मैनें पहली टिप्पणी की । मायने यह कि विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय चिट्ठे की कसौटी, टिप्पणियॉं तो हरगिज नही है ।

हिन्दी के ही स्थापित चिट्ठाकारों के चिट्ठे पर नजर दौडायें श्री रवि रतलामी जी हमेशा थोडा लिखते हैं पर पूरा लिखते हैं । उनकी लोकप्रियता हिन्दी चिट्ठाजगत में सर्वविदित है । क्या हमें स्थापित होने के लिए लम्बा चौडा लेख लिख लिख कर, पहले एक घंटे पन्नों पर कलम घिसकर फिर उसके बाद दो घंटे हिन्दी टायपिंग के पचडों से निबटते हुए कम्प्यूटर पर समय खर्चने की आवश्यकता है वो भी इस संबल पर कि हमारी हिन्दी अंतरजाल में स्थापित हो रही है या हमारा चिट्ठा स्थापित हो रहा है । ऐसा करके न हम हिन्दी को स्थापित कर रहे हैं न ही अपने आप को स्थापित कर पा रहे हैं पर अपने भीतर कोने में बैठे दमित इच्छाओं की जीजीविषा को उजागर कर रहे हैं और पोस्ट करने के बाद बार बार अपने चिट्ठे व मेल को रिफ्रेश कर टिप्पणियों व चटकों को देख देख कर प्रफुल्लित हो रहे हैं कि हमारी कचरा अधकचरा सामाग्री को कितने लोगों ने झेला। मेरा यह मानना है कि चिट्ठे की ‘लोकप्रियता’ हम चिट्ठाकारों का आधार नही होना चाहिए, हमारा उद्देश्य हिन्दी को अंतरजाल में स्थापित करना है । इसके साथ ही अपने हृदय में छुपे लेखक, कवि मन को उजागर करना है, रचना ऐसी, पूर्णतया मौलिक जिसमें सुधार की संभावनायें अपनी बाहें फैलाये खडी हो को सीधे पाठक के सामने ले जाने की मन्शा को प्रदर्शित करना है ।

जहां रवि रतलामी जी जैसे शार्ट एण्ड स्वीट शव्दों के चिट्ठाकार हैं जिनके चिट्ठों पर चटकों का अंबार लगता है तो दूसरी ओर श्री रामचरित मानस जैसे सामुदायिक सहयोग से निर्मित चिट्ठे भी हैं जिसमें अत्यधिक श्रम लगने के बावजूद चटकों व लोकप्रियता की लिप्सा गायब है, एसे कइ चिट्ठाकार भाइ है, हमारे छत्तीसगढ के ही भाइ जय प्रकाश मानश जी को देखें उन्होंने छत्तीसगढ के साहित्यकारों की रचनाओं को अंतरजाल में डालने के लिए पता नही कितना श्रम किया होगा किन्तु उनके दो चिट्ठे श्रृजन गाथा व उनके स्वयं के नाम वाले चिट्ठे को छोड दिया जाये तो बाकी चिटठों में लोकप्रियता दर्शित ही नही होती जबकि उनका प्रयास काफी श्रमसाध्य व काबिले तारीफ है । उनके स्वयं के चिट्ठे में उनकी लम्बी लम्बी शोधपरख लेखनी यह सिद्व करती है कि वे लोकप्रियता के मानकों को भुनाने के लिए चिट्ठाकारी नहीं करते उनका उद्देश्य स्पष्ट है हिन्दी का विकास ।

इस हिन्दी के विकास के यज्ञ के लिये हमे जो आहुति देनी पडती है वह है प्रति माह ३०० से ९०० रूपये ब्राड बैंड का बिल व लगभग तीन से पांच घंटे प्रतिदिन की तनमयता, यदि इसका वित्तीय आंकलन करें तो हिन्दी को स्थापित करने मात्र के सनक के कारण भारत मे निवासरत प्रायः सभी चिठ्ठाकारो का लगभग १०००० रूपये प्रतिमाह खर्च हो रहा है । इसके अतिरिक्त परिवार के लिए नियत समय को खराब करने का अपराधबोध, दिन के बाकी के कार्य के समय में हावी चिट्ठाकारिता के भूत से चलते द्वंद से निबठना अलग । अब इसके बाद भी चटके की लिप्सा न रखा जाये यह तो सम्भव नही है पर लोकप्रियता के वीणा या गीटार का तार कमान जो नारद मुनि के पास है तो एसे मे दिन मे सीधे कम से कम 100 चटके लगने के बावजूद आपका लेख अलोकप्रिय बना रह सकता है और नारद के द्वारा 18 चटके वाला लेख लोकप्रिय के सुनहरे हर्फो मे शोभा पा सकता है इसलिये मेरे चिट्ठाकार दोस्तो नारद को सबकुछ मत समझ बैठो नारद कुछ तो है पर सबकुछ नही है लिखते रहो, लिखते रहो ! आपका लेख भी लोकप्रिय है ।

टिप्पणियाँ

  1. आपने पूरा लेख तो लिख दिया, लेकिन लोकप्रियता वाले उस लिंक पर लिखा डिसक्लेमर नही पढा:

    साथियों हम पेश है लोकप्रिय लेख की कडियों के साथ। लेकिन इसके पहले हम कुछ कहना चाहेंगे। लोकप्रिय लेख का पैमाना नारद के हिट्स काउन्टर कभी नही हो सकता, हम यहाँ पर सिर्फ़ वही दिखा रहे है जो कम्पयूटर के गणना के अनुसार हमारे पास है। इस गणना का आधार नारद के हिट्स काउन्टर है, अर्थात नारद की साइट से आपके लेखों पर भेजे गए लोगों की संख्या के अनुसार लोकप्रिय लेख।


    अगली बार आप किसी विषय पर लेख लिखें, तो पूरी जानकारी अवश्य लें, किसी पूर्वाग्रह या कुंठा से लेख मत लिखें।

    जवाब देंहटाएं
  2. इसे कहते है अलग हट के सोचना। तिवारी जी, लिखते रहें।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी बात कही आपने ...आशा करते हैं लोग भी लोकप्रियता के चक्कर में ना पड़ अच्छा लिखते रहेंगे...

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्‍छा लिखा है सार्थक लेख बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय चौधरी जी आपके प्रयाशो को हिन्दी चिठ्ठाजगत भुला नही सकता
    मैने इस लेख मे नारद के लोकप्रिय लेख का लिन्क भी दिया है यानी लोग उस पेज को पूरा पढ सके . मेरा उद्देश्य गलत कतइ नही है . रही बात ‘पूरी जानकारी’ ‘पूर्वाग्रह’ या ‘कुंठा’ की तो मै हठधर्मिता से ही सही कहुन्गा कि इनकी समझ मुझे है और विनम्रता से यदि कहू तो यही सब तो सीखने और सुधरने का प्लेटफार्म है ब्लाग
    आपका अग्यानी

    जवाब देंहटाएं
  6. "लिखते रहो, लिखते रहो ! आपका लेख भी लोकप्रिय है ।"

    इहै लाईन हमका सबसे सही लगा भैया!

    अच्छा लेख!

    जवाब देंहटाएं
  7. संजीव तिवारी जी नारद तो हमारे समय को बचाने का कार्य करता है. रही टिप्पणियों की बात तो अंग्रेजी चिट्ठों पर तो लोग घूम घूम कर ही आते जाते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं। लोकप्रियता से ज्यादा अहम मुद्दा है कि जब कोई पोस्ट आप लिखते हैं

    १. तो क्या आपको आनंद मिलता है।
    २. क्या आप का लिखा लोगों की किसी जरुरत को पूरा करता है।
    ३. क्या आपके लिखे विचार लोगों को उद्वेलित करते हैं।

    अगर आप अपने आत्मअवलोकन से इन सब बातों का उत्तर हाँ में पाते हैं तो समझिए आप एक अच्छे ब्लॉगर हैं। टिप्पणियों की संख्या से ज्यादा जरूरी उनमें व्यक्त उद्गार होते हैं जो दिखाते हैं कि आपने अपने लेखन से कितनी गहराई तक किसी के मन को छुआ है और यकीन मानिए वही ब्लागिंग की सच्ची पूँजी है।

    जवाब देंहटाएं
  8. अच्छा लिखा है, हिट्स को भूल कर लिखते रहें।

    जवाब देंहटाएं
  9. मुझे इस लेख में न तो कोई पूर्वाग्रह दिखा और नही कोई कुण्ठा.. बल्कि बहुत सारे ऐसे लो्गों के प्रति सम्मान की भावना दिखी जिन्होने निस्वार्थ भाव से हिन्दी की सेवा की है, और जिनमें जितेन्द्र चौधरी स्वयं भी शामिल हैं(रामचरितमानस तैयार करने वाला दल).. डिसक्लेमर ना पढ़ने की गलती ज़रूर हुई हो सकती है.. पर यह डिसक्लेमर वैसा ही है जैसे सिगरेट के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी.. कमोबेश हभी लोग नारद की हिट्स संख्या को लोकप्रियता का पैमाना मानते हैं..और नारद स्वयं भी.. नहीं तो 'पिछले हफ़्ते के लोकप्रिय लेख' कहने का क्या औचित्य है? खैर.. तिवारी जी आप का लेख बड़ी अच्छी नीयत से लिखा गया लेख है.. ऐसा मेरा मानना है.. अब हो सकता है कि कोई मेरे इस समर्थन को 'तिवारीवाद' समझ ले.. तो ऐसे पूर्वाग्रहों का कोई क्या कर सकता है..?

    जवाब देंहटाएं
  10. मनीष भाई की बात से पूरी तरह सहमत हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  11. संजीव तिवारी जी,आपने जिस विषय पर लिखा और जो विचार लिखे मै उस से पूरी तरह सहमत हूँ।

    "मेरे चिट्ठाकार दोस्तो नारद को सबकुछ मत समझ बैठो नारद कुछ तो है पर सबकुछ नही है लिखते रहो, लिखते रहो ! आपका लेख भी लोकप्रिय है ।"

    जवाब देंहटाएं
  12. अमाँ जीतू भाई, काहे को नाराज़ होते हो। संजीव जी ने कहीँ भी यह दावा नहीँ किया कि नारद का लेखा-जोखा लोकप्रियता की कसौटी है या कि नहीँ, या फिर यह भी नहीँ कहा कि नारद के शिल्पी भी यह दावा करते हैं, उन्होंने भी वही लिखा कि नारद पर उन्हीं लेखों का लेखा-जोखा है, जो नारद से होकर गुजरते हैं। यही बात तो आप भी कहते हो और सच भी है तो काहे की नाराज़गी। इन सबके ऊपर तकनीकी सत्यता तो यह है कि शत-प्रतिशत सही हिसाब तो रखा ही नहीँ जा सकता।

    जवाब देंहटाएं
  13. संजीव जी,आपकी लेखन के प्रति आस्था ही आपकी सबसे बड़ी उपलब्धी है..अधिक टिप्पणी वाले बोल्ग जरुरी नही की इस कबिल हो कि उन्हे लेखन के आधार पर टिप्पणी दी जा रही हो..जबकि कभी-कभी तो मुझे लगता है की वो सिर्फ़ अदले का बदला ही देने आते है..जैसे की एक बार मैने पढा था एक ब्लोग पर तू मेरी पीठ खुजला मै तेरी खुजलाता हूँ....

    आपका लेख सबसे अलग हट कर है आपकी कलम ही आपका हथियार है...
    सुनीता चोटिया

    जवाब देंहटाएं
  14. संजीव भाई, आपने सब कुछ बहुत अच्छा लिखा। बधाई। लेकिन नारद के बारे में जैसा जीतेंन्द्र ने बताया कि केवल नारद के हिट काउंटर का मतलब
    ही लोकप्रियता नहीं होता। नारद इसलिये है कि ब्लाग हैं। इसलिये नारद बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं है वाली बात आपकी सही है। लेकिन नारद की लोकप्रियता का कारण भी जानने का प्रयास कीजिये। हालांकि नारद की तरह दूसरे एग्रीगेटर भी हैं लेकिन नारद से जुड़े लोग ही तमाम दूसरे सामूहिक कामों में जुड़े हैं। जैसे परिचर्चा और हाल में जुड़ा प्रतिबिम्ब भी। नित नये प्रयोग भी इसे जीवन्त रखते हैं। जहां तक रही टिप्पणी की बात तो आप खुद समझेंगे कि लोग टिप्पणी कैसे ब्लागों पर करते हैं। अन्य तरह की बातों के अलावा यह एक तरह का व्यवहार भी है। आप दूसरों के ब्लाग पर जायेंगे उनके बारे में अपने विचार रखेंगे तो वे भी आपके बारे में कुछ लिखेंगे। लिखते रहें। शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  15. लोकप्रियता हिन्दी की हो सब का प्रयास इस दिशा मे
    हो

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म