विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
अपनी मदमाती आवाज से सुपर हिट छत्तीसगढी लोकगीत “टूरा नई जाने रे, ठोली बोली मया के ...” के जरिये लाखों लोकसंगीत प्रेमियों के दिलों में जगह बनाने वाली मशहूर छत्तीसगढी लोक गायिका सीमा कौशिक नें ख्वाब में भी नही सोंचा था कि जिस गीत को वे सचमुच में बोली ठोली करने लिख रही हैं, वही गाना उन्हे एक दिन लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा देगा । अपनी मदमाती आवाज से सुपर हिट छत्तीसगढी लोकगीत “टूरा नई जाने रे, ठोली बोली मया के ...” के जरिये लाखों लोकसंगीत प्रेमियों के दिलों में जगह बनाने वाली यह लोक कलाकार भरथरी गायन के विधा से छत्तीसगढी लोकगीतों की दुनियां में आयी, दूधमोंगरा से जुडी और फिर हिट पे हिट छत्तीसगढी गीत संगीत देते हुए अभी छत्तीसगढ की लता मंगेशकर बन चुकी हैं प्रेम गीतों (जिन्हे छत्तीसगढ में ददरिया के रूप में जाना जाता है) की प्रस्तुति में उनका स्वर जादू चलाता है । जो लोग बीच के वर्षों में फूहड गीतों के चलते ददरिया से विमुख हो चुके थे वे भी फिर से सीमा के गाने के दीवाने हो चुके हैं । ग्राम इंदौरी दुर्ग की मूल निवासी ३६ वर्षीय सीमा के पिता एक किसान थे दसवीं तक पढी सीमा ट्रासपोर्टर पति के साथ छत्ती