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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

एक यायावर : हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘‘अज्ञेय’’

आज लेखक कवि अज्ञेय की महानता के सम्बंध में विशेष रूप से कुछ कहने की आवश्यकता बाकी नही है । हिंदी सहित्य के वे अपने ढंग के मूर्धंय लेखक व सर्वधिक चर्चित रचनाकार थे ।१९२४ में “सेवा” नामक पत्रिका में अज्ञेय जी की पहली रचना प्रकशित हुई तब वे मात्र १३ वर्ष के थे, उसके बाद वे कभी मुड के नहीं देखे ईसी के बल पर् वे लगभग १५ कविता संग्रह, ७ कथा संग्रह, ४ उपन्यास सहित ७५ कृतियों के श्रृष्ठा बने । वे पिछले लगभग ५ दसकों से हिंदी कविता को लगातर प्रभावित किये रहने वाले और हिंदी उपन्यास लेखन पर अनेकों प्रश्न चिंह व विवाद खडे करने वाले नई शैली के श्रृष्ठा थे।

अज्ञेय जी के अद्भुत वाक्य संयोजन ने मुझे “नीलम का सागर पन्‍ने का द्वीप” मे प्रभावित किया, इसे पढने के बाद इस विशिष्‍ठ लेखक के सम्बंध में जानकारी इकट्ठे करना प्रारंभ कर दिया था, यह लग्भग २४ वर्ष पूर्व की बात थी, किंतु यह ऐसा लेखक था कि इसकी जीवनी अस्पस्ट होती थी। इन्‍होंने आज तक कहीं अपने बारे में कुछ् लिखा व कहा नहीं, वे स्वभावत: मौन ही रहते थे। अज्ञेय जी एक क्रांतिकारी थे, इनके क्रांतिकारी मित्र राजकमल राय अपने पुस्तक “शिखर से सागर तक” में इनके मौन का उल्लेख तद समय के साहित्यकारों की जुबान में करते हैं यथा - विमल कुमार जैन “वात्सायन शुरु से कम व स्पस्ट बोलते हैं” रघुबीर सहाय “वे अपने जीवन में किसी भी किस्म की घुसपैठ पसंद नहीं करते।“

इसी सम्बंध में मनोहर श्याम जोषी कहते हैं “वे भला कब किसको अवसर देते हैं की कोइ उंहें कुछ भी जान सके, किसको वे अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं, जो भी उनके बारे में जानने का दावा करता है, ब्यर्थ करता है।“  कुछ कही कुछ सुनी व कुछ पढी गई बातों के आधार पर उंहें लोग याद करते हैं। उनके जीवन के सम्बंध में न सहीं उनके सहित्य के सम्बंध मे लोग उन्‍हें जानते हैं व उनकी लेखन क्षमता का लोहा मानते हैं। एक जमाने में “विशाल भारत” पत्रिका में छपने वाली कहानियों के नायक “सत्या” का जन्‍मदाता अज्ञेय जनमानस के लिये एक विचित्र लेखक हुआ करता था। कहां प्रेमचंद के कहनियों की भाषा भाव की सादगी और कहां यह अज्ञेय की भाषा जिसके अनेकों शब्दों को समझना तो दूर सहीं ढंग से उच्चारण कर पाना भी मुश्किल होता था, तिस पर एक अदभुत नायक “सत्य” एसा आदमी प्रेमचंद के नायकों सा जनमानस नहीं होता था। अत: कहनी के उद्देश्यों को समझने में लोगों को कई दिन लग लग जाते थे। जब वे समझते थे तो विस्मित रह जाते थे सत्य पर और अज्ञेय पर।

अपनी इसी शैली एवं क्रांतिकारी व भ्रमणशील जीवन का सुंदर समन्‍वय प्रस्तुत करते हुये दिल्ली जेल,  लाहोर, मेरठ, आगरा, डल्हौजी जैसे जगहों पर आपने अपनी उतकृष्‍ठ कृतियों का सृजन किया। अज्ञेय जी को भारत की संस्कृति एवं इतिहास के अतिरिक्त अन्य देशों की संस्कृति व इतिहास व तात्कालिक परिस्थितियों का विशद ज्ञान था। इसकी स्पट झलक उनकी कहानी व यात्रा वृतांतों में दृटिगत होता है, १९३१ में दिल्ली जेल में लिखी गयी उनकी कहानी “हारिति” अपने आप में संम्पूर्ण रूस को चित्रित करने वाली कहानी है, इसके नायक क्वानयिन व हारिति लम्बे समय तक याद किये जायेंगे, कहानी में शब्दों का प्रयोग इस ढंग से किया गया है कि आंखों के सामने सारा घटनाक्रम प्रस्तुत हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। अज्ञेय जी स्वयं क्रांतिकारी रहे हैं इस कारण वे क्रांति का चित्रण बहुत सटीक ढंग से करते थे। रूसी क्रांति की पृष्टभूमि पर लिखी गयी एक और कहानी “मिलन” में दमित्र्री व मास्टर निकोलाई का मिलन और रूस की उस समय की परिस्थिति का स्पष्ट चित्रण इस बात का ऐहसास देता है कि वे रूस के चप्पे चप्पे से वाकिफ थे। इसके अतिरिक्त “विवेक से बढकर” ग्रीक पर तुर्की आक्रमण एवं “स्मर्ना नगर का भीषण आग” “क्रांति का महानाद” “अंगोरा के पथ पर” जैसे कहानी में किया गया है, इन कहानियों को बार बार पढनें को जी चाहता है।

कहानी उपन्यास एवं कविता के साथ साथ संपादन के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेख्नीय है, हिन्दी पत्रकारिता को उन्होंने नई दिशा “दिनमान” “नवभारत टाईम्स” और “सैनिक” आदि के सहारे जो दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता। एक संपादक के रूप में समाचार पत्र और जनता के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन में वे सर्वप्रथम रहे। इस संबंध में एक दिलचस्प वाकया प्रस्तुत है, आगरा के एक दैनिक समाचार पत्र के अज्ञेय जी संपादक थे और इसके प्रबंध संपादक कृष्ण दत्त पालीवाल थे। वे उस समय चुनाव लड रहे थे और चाहते थे कि सैनिक के संपादकीय में उनकी प्रसंशा नगम मिर्च लगाकर प्रकाशित की जाय। अज्ञेय जी को यह उचित नहीं लगा और इस प्रस्ताव को उन्होंने बडे सरल शब्दों में ठुकराकर जनता एवं पत्रकारिता धर्म के प्रति अपना फर्ज निभाया।

ऱचनात्मक लेखन व संपादन के क्षेत्र में “प्रतीक” “विशाल भारत” व “नया प्रतीक” का संपादन उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा का महत्वपूर्ण योगदान है। अज्ञेय जी को अपने जीवन काल में ही कई छोटे बडे पुरूस्कार भी मिले और वे अलंकरणें से विभूषित भी हुए। इसी क्रम में भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार १४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार “कितनी नावों में कितनी बार” के लिये प्राप्त हुआ। इसके पूर्व उनका नाम दो बार नोबेल पुरस्कार चयन समिति के बीच भी प्रस्तुत हुआ किन्तु यह सम्मान उन्हें नहीं मिल पाया।

१४ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह कलकत्ता के कला मंदिर में बुधवार २८ दिसम्बर १९७९ को आयोजित हुआ था। उक्त अवसर पर पुरस्कृत काव्य कृति “कितनी नावों में कितनी बार” के साथ साथ ही उनकी एक अन्य कविता “असाध्य वीणा” को मंच पर नृत्य नाटिका रूपक में प्रस्तुत किया गया। यह अकेली कविता “असाध्य वीणा” अज्ञेय जी के कवि रूप के विविध आयामों को समेटे हुए उनकी रचना शिल्‍प और शैली का प्रतिनिध्त्वि करती है। पुरस्कार प्राप्ति के बाद मंच से अपने धीर वीर गंभीर वाणी में उन्होंने कहा था 'मेरे पास वैसी बडी या गहरी कोई बात कहने को नहीं है .. … किन्तु वे बडी गहरी व गूढ बात कहते हुए उसी प्रवाह में कहते चले गये .. साहित्य एक अत्यंत ऋजु कर्म है उसकी वह ऋजुता ऐक जीवन व्यापी साधना से मिलती है । नव लेखन एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए नव प्रयोग के संम्बंध में उन्होंने कहा था, नये सुखवाद की जो हवा चल रही है उसमें मूल्यों की सारी चर्चा को अभिजात्य का मनोविलाश कह कर उडा दिया जाता है पर मैं ऐसा नहीं मानता और मेरा सारा जीवनानुभव इस धारणा का खण्डन करता है। मेरा विश्वास है कि इस अनुभव में मैं अकेला भी नहीं हूं।

अज्ञेय के समकालीन प्राय: सभी साहित्यकारों से उनके मधुर संबंध थे किन्तु यशपाल एवं जैनेन्द्र जी से उनका गहरा व पारिवारिक संबंध था। यशपाल के साथ वे सदा जेल में एवं बारूदों के बीच में रहे। इन दोनों के बीच में रहे एक क्रांतिकारी ने कहा था, कि क्रांतिकारी पार्टी में दो लेख्क थे, एक जनाब पिक्रिक एसिड धोते थे और दूसरे साहब श्रंगार प्रसाधन की सामाग्री बनाते थे, वे थे क्रमश: यशपाल व अज्ञेय। जैनेन्द्र जी से भी अज्ञेय जी का संम्बन्ध उल्लखनीय था। लेखक अज्ञेय ही थे जिनको लेकर जैनेन्द्र जी बहुत सी बातें करते थे, अज्ञेय को लेकर जैनेन्द्र जी हमेशा भावुक हो उठते थे, शायद इसका एक कारण तो यही था कि हिन्दी में अज्ञेय जी को परिचित कराने का दायित्व सर्वप्रथम उन्होनें ही वहन किया था।

अज्ञेय जी लाहौर के क्रांतिकारियों में मुख्य थे, उन्हे सजा हुयी तो दिल्ली जेल में रखा गया। उस समय उन्होंने अपनी कहानियां अपने वास्तविक नाम से जैनेन्द्र जी को भेजी, और जैनेन्द्र जी नें रचनाओं पर उनका असली नाम न देकर अज्ञेय नाम दिया, और इसी नाम से रचनायें प्रकाश्नार्थ पत्र पत्रिकाओं में भेजी। आगे जाकर वात्सायन का नाम अज्ञेय ही हिन्दी संसार में प्रतिष्ठित हुआ। अज्ञेय जी लम्बे समय तक जैनेन्द्र जी के साथ जुडे रहे उनके घर में भी रहे शंतिनिकेतन में भी रहे। जैनेन्द्र जी के उपन्यास “त्यागपत्र” का “द रेजिगनेशन” नाम से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। जैनेन्द्र जी ये मानते थे कि अज्ञेय अहं से कभी उबर नहीं पाये और ज्ञेय होने की सहजता उनसे हमेशा दूर रही किन्तु अज्ञेय जी के मन में अंत तक जैनेन्द्र जी के प्रति असीम श्रद्धा विद्यमान रही।

बहुयामी बहुरंगी प्रतिभा संपन्न और सामाजिक मर्यादाओं के संदर्भ में स्वच्छंद जीवन जीने वाले, अज्ञेय जी का लम्बे समय से न केवल उनकी रचनायें, अपितु उनका व्यक्तित्व भी, अपनी तरह का आर्कषण बनाये हुए था। इनके व्यक्तिगत जीवन में संतोष साहनी, कपिला व इला का हस्तक्षेप सर्वविदित है। कपिला दूर रह के भी अपने नाम के पीछे वात्सायन लिखती रहीं और अज्ञेय जी विवाह न करके भी इला के साथ रहे। इन बातों के बीच भी अज्ञेय जी नें अपनी रचना धर्मिता व अपनी विशिष्ट शैली को बरकरार रखा। अपने बारे में ही शायद उन्होंने “अमरवल्लरी” नामक कहानी में लिखा “प्रेम एक आईने की तरह स्वच्छ रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिंब पाता है और एक बार जब वह खंण्डित हो जाता है तब वह जुडता नहीं।” अज्ञेय जी का जीवन अत्यंत संर्घषरत विवादास्पद और कदम कदम पर चुनौतियों से भरा हुआ किन्तु सब कुछ झेल कर आगे बढने वाला रहा है। उन्‍होंनें हिन्दी कविता नई कविता कहानी उपन्यास आलोचना यात्रा संसमरण तथा अन्यान्य दिशाओं में उन्होनें विपुल कार्य किया है तथा उनके चिन्तन की गहराई से हिन्दी साहित्य को जो गरिमा और गौरवपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है उनका महत्व कभी कम होने वाला नही है। मैं ईनकी ही कविता “युद़ध विराम” से उन्हे श्रदधा सुमन अर्पित करता हू :-

“हमें बल दो देशसियोंक्योंकि तुम बल हो,
तेज दो, जो तेजस होओज दो, जो ओजस हो
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो देशवासियों
हमें कर्म कौशल दो,
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है
अभी कुछ नहीं बदला है”

संजीव तिवारी
(दिसम्बर 1988, संभवत: संदर्भों का नकल करते हुए आलेख लिखने का प्रथम प्रयास; वाक्यांश अज्ञेय जी की कृतियों के संबंध में समय समय पर सारिका व अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित साक्षातकार व अंशों से लिये गये हैं)

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