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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

छत्तीसगढी राजभाषा दिवस

३० मार्च २००२ को छत्तीसगढ विधानसभा में छत्तीसगढी भाषा को राजभाषा घोषित करने के अशासकीय संकल्प के पारित होने के यादगार क्षणों को अविश्मरणीय बनाने एवं छत्तीसगढ राज्य के अपने पहचान को स्थापित करने के उद्देश्य से ३० मार्च २००७ को छत्तीसगढी भाषा दिवस के रूप में मनाया गया ।

पूरे राज्य में छुटपुट क्रियाकलापों के अतिरिक्त एक बडा आयोजन छत्तीसगढ की राजधानी में देखने को मिला ।

रायपुर में राज्य स्तरीय संगोष्ठी के आयोजन में राज्य के लगभग सभी छत्तीसगढी भाषा के सुधी उपस्थित थे ।

डा सुधीर शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक छत्तीसगढी राजभाषा का सामर्थ्य का विमोचन भी इस अवसर पर किया गया, डा सुधीर शर्मा की आयोजन अविध् में प्राप्त जानकारी के अनुसार इस पुस्तक को जन जन तक पहुंचाना भी एक प्रकार से छत्तीसगढी की सेवा ही होगी । एक बोली को भाषा व भाषा को राजभाषा के रूप् में स्थापित करने के सफर में उसके तकनीकि पहलू व राजनेताओं में इसके लिये अदम्य संकल्प शक्ति के विकास के पहल के लिये ऐसे अध्ययन की आवश्यकता हम सभी को है ।

श्रीमान रमेश नैयर का यह कथन वर्तमान परिवेश में सर्वाधिक उचित है कि छत्तीसगढी भाषा को स्थापित करने के लिये व्यापक जन आन्दोलन की आवश्यकता है । सिर्फ सभा, गोषठी से कुछ नही होने वाला, छत्तीसगढ के प्रत्येक व्यक्ति को इसके लिये मानसिक रूप् से तैयार करना होगा एवं छत्तीसगढी भाषा के प्रति सम्मान का भाव जगाना होगा ।

सत्य के घ्वजाधर श्री धनाराम जी नें छत्तीसगढी भाषा के प्रति छत्तीसगढ में व्यवहार के संबंध में बहुत ही सटीक उदाहरण प्रस्तुत किया जो हम सभी के लिये अनुकरणीय है, हम स्वयं अपनी भाषा को पददलित करने के लिये दोष ी हैं ।

छत्तीसगढी भाषा के संबंध में श्री नंदकिशोर तिवारी जी नें अपनी छत्तीसगढी पत्रिका में लिखा है कि हमने स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही अपना कमान हिन्दी भािषयों को सहजता से सौंप दिया । मेरी समझ में उस समय के छत्तीसगढ के अ छत्तीसगढी भाषी विचारकों नें छत्तीसगढी को विकसित करने के बजाय उसके विकास में सदैव रोडे अटकाये । इसी का परिणाम है कि हमें अपनी पहचान को स्थापित करने के लिये कमजोर वैचारिक क्रांति के पौधे को बारबार सींचना पड रहा है ।

३० मार्च के इस राज्यस्तरीय सम्मेलन में वक्ताओं के उदबोधन से उपस्थित व्यक्तियों में सम्मेलन अवधि तक ही सहीं अपनी भाषा के प्रति सम्मान का भाव स्पषट परिलक्षित हुआ, आशा है यही भाव हम संपूर्ण छत्तीसगढ में जगा पायें ।

उक्त अवसर पर उपस्थित छत्तीसगढ के अनेकों प्रेमियों में से मैं कुछेक के नाम का यहां पर उल्लेख करना चाहूंगा क्योंकि हमें भविषय में इन्ही प्रेमियों के सहारे हम अंजाम तक पहुंच पायेंगे यथा :-

सर्वश्री रमेश नैयर, भूपेश बघेल, सरजूकांत झा, पदमश्री महादेव पाण्डेय, डा चितरंजन, गिरीश पंकज, श्रीमती शकुंतला तरार, परदेशीराम वर्मा, डा सुधीर शर्मा, सुरजीत नवदीप, प्रो प्रभुलाल मिश्र, प्रेम चंद्राकर, जलकुमार मसंद, सुश्री प्रीति डूमरे, जे आर सोनी, अनूप रंजन पाण्डेय, डा चितरंजन, श्रीमती सत्यभमा आडिल, बसंत कुमार तिवारी, वीरेन्द्र पाण्डेय, रामेश्वर वैषणव, भाई लक्ष्मण मस्तुरिहा, हमारे चिट्ठा जगत के चितेरे भाई जय प्रकाश मानस, धनाराम ढिंढे, ममता चंद्राकर सहित अनेक छत्तीसगढी प्रेमी उपस्थित थे ।
इस समाचार को यहां के समाचार पत्रों ने कोइ तवज्जो नहीं दिया, राजनीतिक माल्यार्पण व समाचारो से भरे रहने वाले पत्रों के पेज में इस समाचार को हांसिया ही मिल पाया

मै इस चिट्ठे के सहारे मेरे इस अनुभव को उन सभी छत्तीसगढी के सुधी पाठकों के बीच ले जाना चाहता हूं जहां विचारों को बांध देने के लिये कोई मीसा लागू नहीं है ।

शब्दों में लयबद्धता की कमी के लिये क्षमा चाहूंगा, एक अप्रैल से आज तक इस संबंध में कुछ लिखने की सोंच रहा था किन्तु चिट्ठा जगत एवं आत्म प्रवंचना में खो सा गया था आज भाव जागे हैं तो प्रवाह के चपलता को बांध नहीं पा रहा हूं, क्षमा सहित ।

टिप्पणियाँ

  1. साधुवाद।
    2003 में जब मैं जनसत्ता में था तो मैंने एक स्टोरी की थी " छत्तीसगढ़ में कोई नहीं पढ़ना चाहता छत्तीसगढ़ी" एम ए के पाठ्यक्रम में वैकल्पिक विषय के रुप में शामिल छत्तीसगढ़ी को आज तक कितने छात्र नसीब हुए है और सरकारी कालेजों में कितने शिक्षक हैं जो अपने छात्रों को छत्तीसगढ़ी चुनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं? तब मैंने इन्ही सब मुद्दो पर बहुतों से बात की थी। खैर, आपने इस खबर को यहां जगह दी , साधुवाद

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  2. वाह भइया तें हर तो बने समाचार ल बताय हस. चलो कुछु देरी भी होगे तो घलोक कोई बात नहीं फेर समाचार ल जान के बने लगीस.

    चार झन जुरही तहां ले चालीस होंही अऊ फेर चार लाख... अइसने काम ह बनही.

    जवाब देंहटाएं
  3. http://srijansamman.blogspot.com/2007/05/blog-post.html

    येला पढं डारे का जी,

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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